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है । वे अष्टम बलभद्र राम की कथा के माध्यम से जैन-धर्म की भावनाओं को पाठकों तक पहुँचाना चाहते हैं ।
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, पर्व ७ कलापक्ष का सुंदर नमूना है। संस्कृत भाषा की इस रचना का कलापक्ष शास्त्र संपादित रस व्यंजना, संक्षिप्त छंद विधान तथा विस्तृत एवं अलंकारिक वर्णन से स्वतः स्पष्ट है। हेमचंद्र की संस्कृत भाषा में उपाख्यानों एवं संवादों की भरमार है। काव्य रुप की दृष्टि से त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित सफल पौराणिक चरित काव्य पर खरा उतरता है । हाँ, संस्कृत जैसी अप्रचलित भाषा के कारण यह ग्रंथ जनमानस की लोकप्रियता से दूर रहा। वर्तमान में इसके गुजराती, हिन्दी आदि अनुवाद आने से यह जन-जन तक पहुँच रही है ।
अंतिम अध्याय में जैन रामकथा की नवीन उद्भावनाओं की विस्तार से चर्चा की गई है। ये नवीन कल्पनाएँ जैन श्रमण परंपरा के अतिरिक्त अन्य लोगों के लिए किस प्रकार मान्य होंगी, यह प्रश्न सामने है।
लेखक के हाथ में जब तक कृति होती है तब तक वह व्यक्तिगत, सांप्रदायिक या जातीय हो सकती है। परंतु लेखक या कवि के हाथ से छूटकर जब वह जन-मन के सम्मुख आती है तो सार्वजनिक कृति का रुप धारण कर लेती है । त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, पर्व ७ (जैन रामायण) आज जन-जन का ग्रंथ है और जन-जन इसे तब स्वीकारेगा जब इसकी नव कल्पनाएँ प्रमाणित हों । तथापि कोई ठोस आधार सत्य - प्रच्छन्न भी हो सकता है। श्री कृष्ण की भांति श्री राम भी एक से अधिक हुए हों और एक ही कथा दूसरे से अथवा अनेक की कथा एक से जुड़ गई हो, जोड़ने के प्रयास में साहित्यकार ने भी नव कल्पनाएँ की हों । कल्पना साहित्य का प्राणतत्व है, प्रत्येक काव्यकार को कल्पना करने का अधिकार भी है। हाँ, मर्यादा और परंपरा की बात अलग है। अत: यह विषय नए शोधार्थियों को भी एक चुनौती दे रहा है। वर्तमान मानव मानवता से अलग-थलग पड़ गया है। कों की जनसंख्या में इन्सानियत खोजने पर भी नजर नहीं आती । व्यक्ति शरीर चेतना युक्त होकर भी आत्मा जड़ होती जा रही है। अकर्मण्यता ने उसे दबोच लिया है। धर्म की कल्पना वह भूल सा गया है । नास्तिकता का जामा सहज में ही मानव ने पहन लिया है। इन्सान ने "अर्थ" को आज का सर्वोपरि मूल्य समझ लिया है । " चरित्र" शब्द से आम आदमी नफरत करने लगा है। समाज परिवारों में एवं परिवार दो-दो व्यक्तियों (पति-पत्नी) में बदलता जा रहा है ।
"आदर्श" शब्दमात्र रह गया है, उसे व्यवहार में लाना कल्पना से परे की वस्तु मान ली गई है ।
ऐसी परिस्थितियों में आवश्यक है राम द्वारा प्रतिस्थापित आदर्श को प्रत्येक जन के ग्रहण करने की। अगर हम स्वच्छ समाज की संरचना चाहते
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