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३८/तीर्थंकर चरित्र
भीड़ से घिरे हुए ऋषभ को देखकर मरुदेवा विस्मितमना सोचने लगी-ओह! ऋषभ के पास तो भीड़ लग रही है । मैं तो सोच रही थी कि ऋषभ अकेला है, उसे भोजनपानी कैसे मिलता होगा? उसकी देखभाल कौन करता होगा? मैं व्यर्थ ही चिंतातुर थी, यहां तो आनन्द ही आनन्द है। ऋषभ दुःखी नहीं, अत्यन्त सुखी है। देखो, ऋषभ सब कुछ छोड़कर सुखी हो गया है। लगता है, सुख इन सबको छोड़ने में है। इसी ऊहापोह में उनका चिंतन त्याग की तरफ हो गया। धर्म- ध्यान में बढ़ती हुई मरुदेवा माता ने भावों में चारित्र पा लिया और तुरन्त क्षपक- श्रेणी पर जा पहुंची। हाथी पर बैठी-बैठी ही वे तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त कर सर्वज्ञ बन गई। आयुष्य अत्यधिक कम होने से हाथी से नीचे उतरने का अवकाश भी उन्हें नहीं मिला। वहीं पर योग-निरोध होकर शैलेशी बन गई और चौदहवें गुणस्थान में रहे अघाती कर्मों का भी क्षय करके उन्होंने सिद्धत्व प्राप्त कर लिया। __भरत भगवान् के निकट पहुंचकर वंदना करने लगे। भगवान् ने तभी फरमाया-'मरुदेवा सिद्धा'। भरत ने तत्काल मुड़कर देखा तो हाथी पर परमश्रद्धेया दादीजी का शरीर भद्रासन के सहारे लुढ़का हुआ पड़ा है। भरत को बहुत आश्चर्य हुआ । भगवान् ने कहा- इस अवसर्पिणी में सर्वप्रथम मोक्ष जाने वाली मरुदेवा माता ही है। तीर्थ स्थापना
भगवान् के प्रथम प्रवचन में ही साधु- साध्वी, श्रावक तथा श्राविकाएं बन गई थीं। चतुर्विध तीर्थ की स्थापना के बाद भगवान् तीर्थंकर कहलाए। क्रमशः काफी लोग यथाशक्ति साधना में रत हुये। भगवान् के पांच महाव्रत रूप अणगार धर्म के साधक भी काफी बन गए थे। भगवान् ऋषभ के साधुओं का शरीर शक्तिशाली था, किन्तु बौद्धिक विकास न्यूनतम था। ज्ञान की दृष्टि से वे मन्द थे। कोई भी बात समझाने में पूरा परिश्रम करना पड़ता था, किंतु समझने के बाद पालन करने में बड़े सुदृढ़ थे, उस समय आचरण क्षमता पूरी थी। तभी उस समय के युग को ऋजु (सरल) जड़ कहा जाता था। अठानवें भाइयों द्वारा दीक्षा-ग्रहण
सम्राट् भरत पूरे क्षेत्र में एक छत्र साम्राज्य स्थापित करने के लिए चक्र रत्न के साथ विजय यात्रा के लिए निकल पड़े। सर्वत्र विजय प्राप्त करने के बाद अपने भाइयों को दूत भेजकर यह संदेश दिया कि वे उनकी अधीनता स्वीकार करें । भाइयों को यह उपयुक्त नहीं लगा। अठानवें भाइयों ने सोचा-पिताजी के पास जाकर इस समस्या का समाधान करना चाहिए।
सभी भाई पिता भगवान् ऋषभ के पास आये और अपनी व्यथा व्यक्त करते