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________________ भगवान् श्री ऋषभदेव/३९ हुए बोले-'पिताजी! आपने हमें स्वतंत्र राज्यभार सौंपा था, पर ज्येष्ठ भ्राता भरत आपका दिया राज्य हड़पना चाहता है। यह बहुत गलत बात है। आप हमारा पथ प्रदर्शन करे।' ___ भगवान् ऋषभ ने अठानवें भाइयों को समझाया- 'देखो, ये राज्य तो कभी स्थायी नहीं होते हैं! ये सारे समय के साथ छूटने वाले हैं! मैं तुम्हें ऐसे राज्य का अघि पति होने का उपाय बताता हूं जो प्राप्त होने के बाद कभी जाता नहीं! भगवान् की युक्ति पुरस्सर वाणी से भाइयों को अवबोध मिला और उस शाश्वत राज्य के अधिपति होने की दिशा में पादन्यास कर दिया। भरत- बाहुबली युद्ध __ अठानवें भाइयों ने प्रभु के पास दीक्षा स्वीकार कर ली। बाहुबली के पास जब दूत संदेश लेकर पहुंचा तो राजा बाहुबली ने कहा - दूत ! जा अपने सम्राट् भरत से कह दे कि बाहुबली अपने उन भाइयों की तरह नहीं है जिन्होंने दीक्षित होकर अपने राज्यों को समर्पित कर दिया। पूज्य पिताजी ने सब भाइयों को स्वतंत्र राज्य दिया था। तदपि भरत बलात् चेष्टा करेगा राज्य हड़पने की तो मेरे पास बाहुबल हैं, मैं अपने राज्य की रक्षा करना भली भांति जानता हूं | मैं किसी के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता न ही कोई मेरे कार्यों में दखल दे यह पसंद करता हूं, इसलिए मैं राजा भरत की अधीनता स्वीकार नहीं करूंगा। हां, छोटा भाई होने के नाते ज्येष्ठ भ्राता के चरणों में कभी भी, कहीं भी प्रणाम करने लिए सदैव तत्पर हूं।' ___ आखिर सम्राट् भरत ने बाहुबली के राज्य तक्षशिला पर चढ़ाई कर दी। दोनों पक्षों की सेनाओं में भीषण संग्राम छिड़ गया। कभी भरत की सेना बाहुबली की सेना पर भारी पड़ रही थी तो कभी बाहुबली की फौज भरत की फौज को पछाड़ रही थी। युद्ध में भारी जनहानि को देखते हुए यह निर्णय हुआ कि मुख्यतः युद्ध भरत व बाहुबली के बीच है तो क्यों नहीं इन दोनों के बीच ही अंतिम युद्ध हो। जो जीते वही विजेता हो। युद्ध की जो योजना बनाई गई वह इस प्रकार थी१. दृष्टि युद्ध २. वाक् युद्ध ३. मुष्टि युद्ध ४. दंड युद्ध इन सभी युद्धों में बाहुबली के हाथों भरत को जबरदस्त पराजय मिली। इस पराजय से उत्तेजित होकर भरत ने अपने अचूक व अंतिम स्त्र “चक्र" को प्रक्षेपित किया। चारों ओर सन्नाटा छा गया, हाहाकार मच गया। सभी यह जानते थे कि इसका वार कभी खाली नहीं जाता। बाहुबली के पक्षघरों ने चक्र को रोकने की
SR No.022697
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumermal Muni
PublisherSumermal Muni
Publication Year1995
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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