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भगवान् श्री ऋषभदेव / ३७
के उत्पन्न होने की थी तथा तीसरी बधाई भगवान् ऋषभ को केवल ज्ञान प्राप्ति की थी । ये तीनों बधाइयां साथ में प्राप्त हुई थीं । सम्राट् सोचने लगे- मैं पहले किसका महोत्सव करूं? क्षण-भर में वे इस निर्णय पर पहुंचे कि पिताजी ने जिस लक्ष्य को लेकर अभिनिष्क्रमण किया था, मौन व्रत स्वीकार किया था, वह उन्हें प्राप्त हो चुका है, अतः मुझे पहले पिताजी की सफलता की अभ्यर्थना करनी चाहिए। इसी में मेरा विनय है । भरत ने तत्काल घोषणा की पहले केवल महोत्सव होगा, चक्र-रत्न और पुत्र रत्न के महोत्सव बाद में होंगे।
इस घोषणा के साथ ही सम्प्रट् भरत राजकीय सवारी में भगवान् के केवल महोत्सव में सम्मिलित होने के लिए चल पड़े। उनकी राजकीय सवारी में भरत की दादी मरुदेवा माता भी थी । पुरिमतालपुर विनीता का ही समीपवर्ती नगर था। मरुदेवा सिद्धा
ऋषभ अब बोलेंगे, लोगों से मिलेंगे, शिक्षा देंगे, ऐसा जब से मरुदेवा ने सुना, तभी से वे पुलकित हो रही थी। ऋषभ से मिलूंगी, सुखःदुख की बात पूछूंगी, इसी उमंग में उतावली होकर हाथी की सवारी से चल पड़ी। उपवन के निकट पहुंचते ही उन्हें भगवान् ऋषभदेव दृष्टिगत हुए । समवसरण में देव तथा मनुष्यों की बड़ी