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________________ (८८) छोड़ दिया और धनपति का रूप धारण करके वसुमती के साथ यह सुरत में आसक्त हो गया। वह बिचारा धनपति विनीता नगरी को देखकर आश्चर्य करने लगा कि यह तो दूसरी नगरी है, मेखलावती यह नहीं है । क्या किसी ने मेरा अपहार किया, अथवा मैं स्वप्न देखता हूँ ? यह सोचते हुए नगर के बाहर जब घूम रहा था, इतने में वहाँ श्री ऋषभनाथ जिन वर के वंश में उत्पन्न राजर्षि दंडविरत नामक केवली ने मुनियों ने साथ समवसरण किया । अवसर पाकर प्रणाम करके धनपति ने विनय से पूछा, भगवन् ? मेरा अपहरण किसने किया ? यह कौन-सा क्षेत्र है ? यह नगरी कौनसी है ? केवली ने उससे सारा वृत्तांत बतलाया, वह अत्यंत दुःखी हो गया, केवली ने उसे आश्वासन दिया, भद्र ? यह संसार ऐसा ही है, इस संसार में बसनेवाले जीवों को संयोग-वियोग होते ही रहते हैं, वस्तुतः दुःख तो अपने कर्म से ही होता है, फिर केवली ने उपदेश दिया कि तुम मन में ऐसा चिंतन करो कि उस विद्याधर ने मुझे दुःख नहीं दिया है, यह दुःख तो मुझे अपने अशुभ कर्म का ही है, भद्र ? कर्म का छेदन करने के लिए जिनधर्म में उद्यम करो । फिर तुम्हें ऐसा दुःख नहीं भोगना पड़ेगा । केवली भगवंत के वचन सुनकर संवेग में आकर धनपति ने दीक्षा के लिए प्रार्थना की और केवली ने उसे दीक्षा दे दी, लाखों पूर्व तक उग्र तपश्चरण करते हुए विधिपूर्वक श्रामण्य का पालन करके अनशन से अपना शरीर छोड़कर ईशान कल्प में अप्सराओं से युक्त चंद्रार्जुन विमान में चंद्रार्जुन नाम का देव बना | अवधि - ज्ञान से अपना सारा वृत्तांत जानकर वही देव मैं यहाँ आया हूँ, वसुमती के साथ इसे सोते देखकर मुझे बड़ा क्रोध आया और मैंने इसकी सारी विद्याओं का छेद किया, यह अपने स्वरूप में आ
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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