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________________ (८७) विद्याच्छेद होने पर विद्याधर कुमार की तरह अत्यंत दीन बन गया । उसका शरीर काँपने लगा। फिर सुदर्शना उससे पूछने लगी, पापिष्ठ ! बोल, तूने मेरे पुत्र को क्या किया ? उसने अपना मुख नीचे कर लिया और जब कुछ जवाब नहीं दिया तब लोग अनेक प्रकार की बातें करने लगे । कोई कहता था कि धन चुराने के लिए आया है, दूसरे कहते थे कि धन चुराने के लिए आता तो शय्या पर क्यों सोता ? कुछ लोग कहते थे कि वसुमती के रूप से आकृष्ट होकर कोई परदार भोगी है, तो दूसरे कहते थे कि तब माता क्यों कहता है ? कुछ लोग कहते थे कि भूत या पिशाच है, तो कुछ लोग कहने लगे कि नहीं, नहीं यह तो वसुमती के शील की परीक्षा करने के लिए कोई देव आया है। इस प्रकार लोग जब भिन्न-भिन्न बातें करते थे, धारिणि ! इतने में वहाँ क्या हुआ ? सो सनो-- केयूर हार अंगद आदि अलंकारों से सुशोभित दैदीप्यमान कांतिवाला मनोहर शरीर एक देव वहाँ प्रकट हुआ । और उसने कहा, भद्रा ? सुनो, मैं इसका रहस्य बतलाता हूँ, बिना समझे तुम इतना विकल्प क्यों करती हो ? यह सुमंगल नाम का विद्याधर है, अपनी इच्छा से आकाशमार्ग में घूमते हुए इस नगर के सामने आने पर महल पर स्नान करते समय इसने वसुमती को देखा । देखते ही इसके रूप पर मोहित होकर धनपति का रूप धारण करके नीचे उतर गया । फिर उसने सोचा कि मैं धनपति रूप में इसके साथ कामवासना सुख का अनुभव करूँ, अन्य विद्याधरियों से तथा अन्य युवतियों से अब कोई प्रयोजन नहीं, यह सोचकर इसने धनपति का अपहरण करके भरत क्षेत्र में विनीता नगरी में जाकर
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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