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________________ (८९) गया, मेरे प्रभाव से वसुमती की निद्रा टूट गई, जागने पर इसे पता चला कि यह पर पुरुष है और उसने जाकर अपनी सासु सुदर्शना से कहा, सुदर्शना ने इसे देखकर हल्ला किया, इस दुष्ट ने भी जागने पर सुदर्शना के कठोर वचन सुनकर अपना पूर्व रूप देखकर यह आश्चर्य में पड़ गया और सोचने लगा कि आज मेरी विद्या का किसने अपहार किया। यह सोचकर उड़ने की इच्छा से इसने आकाशगामिनी विद्या का स्मरण किया, फिर भी जब उठ नहीं पाया तब इसको पता चला कि किसी ने विद्याच्छेद कर दिया है । इसीलिए मैं अपने पहले स्वरूप में आ गया हूँ और आकाश में उड नहीं पा रहा है. इस प्रकार से विकल्प करके यह दीन बन गया है। प्रिय सखि ? धारिणि ? उस देव के वचन को सुनकर समुद्रदत्त श्रेष्ठी और उसकी भार्या सुदर्शना दोनों अपने पुत्र के दुःखों की बात से द्रवित होकर उस देव का आलिंगन करके करुण विलाप करके रोने लगे। उस दोनों के करुण विलाप सुनकर जो लोग वहाँ आए थे, सबके सब रोने लगे । श्रेष्ठी के रोने की आवाज़ सुनकर सारे नगर के बालवृद्ध सब वहाँ पहुंच गए । नगर के नरनारीगण सुमंगल की निंदा करने लगे, और कहने लगे कि इस पापी ने निर्दोष धनपति का अपहरण किया अतः इसके ऊपर बिजली गिर जाय और यह सोकर उठे नहीं, रे पाप ! क्या तेरे योग्य विद्याधरियाँ नहीं थीं जो तुमने बिचारी वसुमती का शील खंडन किया। इस प्रकार जब लोग उसकी निंदा करने लगे तव वह सुमंगल अत्यंत दीन बन गया। उस देव ने आश्वासन देकर माता-पिता को शांत किया और आँसू के प्रवाह को बहाती वसुमती से कहा, भद्रे ? वसुमति ? अब तुम्हें क्या करने का उत्साह है ? मुख को नीचा करके वसुमती
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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