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________________ _ (९०) ने कहा, स्वामिन् ? आप जो करने के लिए कहेंगे उसी में मेरा उत्साह है। देवने कहा कि घसुमति ? यद्यपि तुमने अज्ञानवश यह काम किया है फिर भी इस पाप का प्रायश्चित प्रव्रज्या है । अतः तुम प्रव्रज्या लेकर कर्म को नष्ट करो। वसुमती ने स्वीकार किया, सभी लोगों ने अनुमोदन किया, बाद में उस देव ने उसी नगरी में सूरिवर सुधर्म की महत्तरि चंद्रजसा के पास वसुमती को रक्खा, उन्होंने भी विधिपूर्वक वसुमती को भागवती दीक्षा दी । अत्यंत क्रोध आने पर भी देव ने उस सुमंगल को मारा नहीं किंतु उसे ले जाकर मानुषीत्तर पर्वत के पार छोड़ दिया, बाद में वह देव अपने विमान को चला गया । वसुमती ने भी समिति गुप्ति में रहकर स्वाध्याय में लीन होकर लाख पूर्व तक श्रामण्य पालन करके संलेखना से अपने शरीर को झौंस कर अनुरागवश हृदय में उसी देव का ध्यान करते हुए अनशन से काल धर्म प्राप्त करके ईशान नामक द्वितीय कल्प में चंद्रार्जुन विमान में चंद्रार्जुन नामक देव की चंद्रप्रभा नामक प्रधान देवी बनी ! 'वसुमती देव लोक प्रयाण' नाम षष्ठ परिच्छेद समाप्त--
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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