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________________ (६८) बार प्रदक्षिणा की और केवली के चरणकमल को प्रणाम करके दोनों भूमि पर बैठ गए। उसके बाद सजल बादल के गर्जन को जीतनेवाली गंभीर वाणी से केवली ने उस सभा में अपनी देशना प्रारंभ की कि मनष्यों की लक्ष्मी हाथी के कान के समान चंचल हैं, आयु अनित्य हैं, यौवन जरा से ग्रसित है, शरीर सैकड़ों रोगों से पीडित है । विषय कुगति के कारण और तुच्छ हैं, भ्रम से ही संसार में सारभूत वस्तु देखने में आती है, यह संसार सर्वथा दुःखमय है, यह जानकर आप लोग जिनधर्म का आश्रयण करें, भव समुद्र में यह अपूर्व सामग्री प्राप्त हुई है । इसको सर्वथा सार्थक करें । भव समुद्र परिभ्रमण से बचानेवाला केवल जिनदर्शन ही है, अतः भागवती दीक्षा लेकर संयम पालन करके संसार का विनाश करके सिद्ध गति को प्राप्त करें। इस प्रकार केवली की देशना सुनकर कुछ लोगों ने प्रव्रज्या ले ली, कुछ उपासक बनें । और कुछ लोगों ने सम्यक्त्व प्राप्त किया, इतने में प्रणाम करते हुए ज्वलनप्रभ ने अपने पिता केवली से पूछा कि भगवन् ? क्या फिर मेरा राज्य मुझे मिलेगा या नहीं? केवली ने कहा कि भानुगति से दी गई रोहिणी विद्या सिद्ध होने पर फिर राज्य मिल जाएगा, इसमें संशय नहीं । केवली से राज्य प्राप्ति की बात जनकर प्रसन्न होकर ज्वलनप्रभ और चित्रगति ने उनकी वंदना की और सभा समाप्त हुई। उसके बाद दोनों अपने नगर आए। चित्रगति ने अपने पिता से केवली की बात बतलाई । भानुगति ने शुभ नक्षत्र में दोनों को एक साथ रोहिणी विद्या दी । और कहा कि बस्ती में ही करजाप विधान से छ, महीने तक पूर्वसेवा करो, यह सेवा एक साथ ही होगी किंतु उत्तर सेवा क्रमशः होगी। यह सेवा जंगल
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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