SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (६७) आए, प्रभंजन राजा ज्वलनप्रभ को राज्य और कनकप्रभ को प्रज्ञप्ति विद्या देकर सुधोष मुनि के पास दीक्षित होकर श्रामण्य पालन में लीन हो गए। ज्वलनप्रभ चित्रलेखा के साथ राजलक्ष्मी का उपभोग करता है, विधिपूर्वक प्रज्ञप्तिविद्या का-साधन कर के उस विद्या के प्रभाव से कनकप्रभ अत्यंत प्रभाव शाली बन गया। अपने कुल की प्रतिष्ठा को छोड़कर अपयश दुर्गतिगमन आदि का विचार नहीं करते हुए राजलक्ष्मी के लोभ से कनकप्रभ ने बड़े भाई ज्वलनप्रभ से राज्य को छीनकर अपने तेज तथा सामादि के प्रयोग से विद्याधरों को अपने वश में कर के ज्वलनप्रभ को अपनी भूमि से निकाल दिया । वह अपने श्वशुर के पास चमरचंच नगर में आया, श्वशुर ने बहुमानपूर्वक अपने नगर में उनका प्रवेश कराया। चित्रलेखा के साथ उस नगर में रहते हुए उनके बहुत दिन बीत गए, एक समय ज्वलनप्रभ अपने साले चित्रगति के साथ नगर से निकल कर सुंदर वृक्षोंवाले अनेक उपवनों को भारंड चक्रवाक आदि अनेक पक्षियों से सुशोभित स्वच्छ जलवाले सरोवरों को सफेद कांतिवाले पर्वत के शिखरों को देखते हुए किन्नर मिथुनों से अलंकृत कदली गृह से शोभित कोयलों के कलकण्ठ से रमणीय भ्रमरों के झांकर से मधुर फलभार से नमें सैकड़ों वृक्षोंवाले एक वन निकुंज में प्राप्त हुआ। वहाँ उसने मंद-मंद पवन से आंदोलित पल्लवोंवाले रक्ताशोक वृक्ष के नीचे सुवर्ण-कमल पर विराजमान एक मुनिवर को देखा, मुनि को अभी-अभी केवल ज्ञान प्राप्त हुआ था । इसीलिए विद्याधर किन्नर आदि नमस्कार करके उनकी स्तुति कर रहे थे । नज़दीक जाने पर ज्वलनप्रभ ने अपने पिता को पहचान कर चित्रगति से बतलाया । हर्ष से रोमांचित होते हुए दोनों ने तीन
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy