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________________ __(५२) जो सर्वदा छट्ठ अट्ठम् दशम आदि मानाप्रकार के तप में तत्पर थे, वे आपके पिता सुरवाहन विद्याधर मुनिवर आज वैताढ्य के चित्रकूट शिखर पर आए हैं, उन्हें आज लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है, उसकी बात सुनकर गन्धवाहन राजा अत्यंत प्रसन्न हुए और अपने शरीर के सभी वस्त्र-आभूषण उसको पहनाकर कोषाध्यक्ष को आदेश देकर साढ़े तेरह करोड़ सोना मोहर प्रीतिदान दिलवाया। उसके बाद राजा विद्याधरों के साथ पिताजी की वंदना के लिए चले, उनके पीछे विद्यारचित श्रेष्ठ विमान पर चढ़े परिजन तथा सुंदर वेश विभूषित नागरिक भी चले, मुनिचरण की वंदना के लिए मैं भी उनके साथ चला, वहाँ पहुँचने पर चतुर्विध देवनिकाय को चित्रकूट पर उतरते देखकर राजा अत्यंत प्रसन्न हुए। बड़ी .शीघ्रता से उनके पास पहुँचकर तीन बार प्रदक्षिणा कर के भक्ति के साथ नमस्कार कर के उनकी स्तुति की, उनके पास की भूमि पर बैठ गए। इतने में परोपकार परायण केवली भगवंत ने गम्भीवाणी में देशना प्रारंभ की कि कर्माधीन जीवों के लिए मनुजत्व अत्यंत दुर्लभ हैं, यह शरीर रोग शोक व्याधि का मंदिर है, मनुष्यों की लक्ष्मी पवन से चंचल ध्वज वस्त्र के समान अत्यंत चंचल है, विषयसुख परिणाम भयंकर तथा नरक में कारण है, मिथ्या विकल्प से जीपों को संसार सुखमय प्रतीत होता है, मृत्यु जीवों का सतत अपहरण करती है, अतः हे भद्र ? केवलि प्ररूपित धर्म को छोड़कर जीवों को बचानेवाला कोई अन्य तत्त्व नहीं है, अतः दुर्लभ मनुष्य भव प्राप्त कर भागवती दीक्षा लेकर कर्मशत्रुओं का विनाश कर के मोक्ष को प्राप्त करें।
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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