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________________ (४७) ऊपर स्नेह था तो उसने कुछ उत्तर क्यों नहीं दिया? इससे मैं मानता हूँ मेरे ऊपर उसका स्नेह नहीं है, यदि नहीं है तो फिर उसके विरह में मेरा मन क्यों बेकार जलता है, उसको देखनेवाली तो मेरी आँखें हैं तो फिर उसका विरह आँखों को नहीं जलाकर मन को क्यों जलाता है ? इससे तो जो कर्म करता है वही उसका फल भोगता है यह बात मुझे असत्य लगती है। हृदय ? इन आँखों को रोने दें, तू क्यों विदीर्ण होता जा रहा है ? इतने में भुवनमंडल में घूमने से श्रांत होकर सूर्य अस्ताचल पर विश्राम करने गए । अपनी किरणों से भुवन को इसने संतापित किया है, यह जानकर अस्ताचल ने अपने मस्तक से सूर्य को नीचे ढकेल दिया । सूर्य के नीचे गिरते ही क्रोध से लाल मुख किए संध्या आ गई, उसके बाद दिशाओं को अंधकारित करती हुई रजनी आ पहुँची। जिसमें तारे प्रकट थे और उलूकों के हुँकार से जो अत्यंत भीषण थी। कुछ ही देर के बाद अंधकार का नाश करते हुए मानिनीजनों के मान को तोड़नेवाला चंद्र उदित हुआ। चंद्र-पवन से वियोगाग्नि अत्यंत तीव्र हो उठी, मेरा हृदय सौ गुना अधिक जलने लगा। तब मैंने सोचा कि अमृतमय होने पर भी चंद्र उसके विरह में बिजली की तरह क्यों जलाता है ? तब मैंने हृदय से कहा कि दुर्लभ जन के साथ तूने अनुराग ही क्यों किया? जो स्नेह करे उसके साथ अनुराग करना चाहिए जो दूर से ही जलाती है उसमें तेरा अनुराग क्यों? अब मैं अपनी स्थिति किससे बतलाऊँ ? क्या दिन होगा जब कमल कोमल उसके हाथ का स्पर्श प्राप्त होगा? उसके साथ विवाह की बात तो दूर रहे उसका दर्शन भी मैं दुर्लभ मानता हूँ । मेरा जीवन बेकार है, इस मनुष्यजन्म से क्या लाभ ? जो उसका मुख भी मैं नहीं देख पा रहा हूँ, अथवा
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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