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________________ तृतीय - परिच्छेद उसके बाद मैंने भी उससे पूछा कि भद्र ? आपको व्यर्थ इस विपत्ति में किसने डाल दिया ? उसने दुःख के साथ लंबी साँस लेकर आँसू बहाते हुए कहा कि राग से मोहित चित्तवालों के लिए इस संसार में विपत्तियाँ अत्यंत सुलभ हैं, अतः असंयमी जीवों के लिए यह पूछने की आवश्यकता ही नहीं है, पूर्व कृतकर्म दोष से सभी जीवों को सुख-दुःख मिलते रहते हैं, दूसरा तो केवल निमित्त ही होता है, तब मैंने कहा कि यह ठीक है, इस में कोई संदेह नहीं, फिर भी मैं विशेष कारण जानना चाहता हूँ, मेरी बात सुनकर उसने कहा कि सुंदर ? यदि आपको आग्रह है तो मैं कहता हूँ, आप ध्यानपूर्वक सुनें । इसी भरत क्षेत्र में सब प्रकार की ऋद्धियों से संपन्न वैताढ्य नाम का पर्वत है, जिस पर अनेक विद्याधर रहते हैं, जो चांदी का ऊँचा ढेर जैसा है, जिसकी कांति चारों ओर फैल रही है, जिसके झरने की आवाज़ से दिशाएं बहरी हो रही हैं, जिसके बन में मधुपान लोभी भ्रमरो का मधुर गुंजन हो रहा हैं, जिसकी बहती हुई नदियों की कलकल ध्वनि दिशाओं में फैल रही है, जिस पर जगह-जगह विद्याधरों के नगर शोभते हैं, एकांत स्थान में विद्याधर विद्याओं का साधन कर रहे हैं, जिसके शिखर सिद्धायतनों से भूषित हैं । जिन में प्रतिष्ठित जिनबिंब की पूजा के लिए आते हुए देवों से जिसका आकाश भाग सुशोभित है, जिस पर कान्ता
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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