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________________ (३४) ही भय देनेवाले, लाल-लाल आँखोंवाले, काले शरीर से निकलनेवाली कांति से आकाश को भरनेवाले, निर्मल रत्नों की प्रभा से चमकते हुए मुखवाले, अत्यंत क्रोध से अपने फणों को बार-बार फैलानेवाले, लंबी चंचल हजारों जिव्हाओं से भयभीत करनेवाले । भयंकर क्रोध से बार-बार फॅफकार करनेवाले सर्पो से चारों ओर से घिरे हुए उस वृक्ष के नीचे बैठे हुए, एक दिव्य आकारवाले पुरुष को देखा । वह अत्यंत दुःसहवेदनाओं से बार-बार मंद-मंद हुंकार करता हुआ, कंठपर्यंत सर्पो से लिपटा हुआ था। उसको देखकर मैं बिना विचारे काम करनेवाले विधाता को धिक्कारने लगा, इतने में उसने कहा कि विलाप करने से कुछ फायदा नहीं । तुम मेरी बात तो सुनो, मेरी चूड़ा (चोटी) में चमकीली एक दिव्यमणि बँधी है, वह सों को दूर करनेवाली है। जिसके प्रभाव से घोर विषवाले ये सर्प मुझे इंसना चाहते हुए भी डॅस नहीं सकते हैं, मानो इनके मुख बंद कर दिए गए हो । अतः इस श्रेष्ठ मणि को लेकर जल से प्लावित कर उस जल को मेरे अंगों पर चिपके हुए सर्पो पर छिटको । हाँ, कहते हुए मैंने उस जल को छींटा, छींटते ही सब सर्प तीक्ष्ण अग्नि से तपाए गए मोमपिंड की तरह विलीन हो गए। इसके बाद प्रसन्नवदन वह पुरुष शीतल वृक्ष की छाया में मेरे पुरुषों द्वारा रचित कोमलपत्तों से आच्छादित बिछौने पर बैठ गया। पहले उसने ही मुझसे पूछा कि आप कहाँ से आए हैं ? आपका नाम क्या है ? आप किस निर्मल कुल में पैदा हुए हैं ? और आपके पिता का नाम क्या है ? पूछने पर मैंने सारा वृत्तांत कह सुनाया, जो मैंने आपको पहले कह सुनाया है !" विद्याधर मोचन नाम द्वितीय परिच्छेद स० ।
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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