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________________ (३६) सहित विद्याधर संगीत कर रहे हैं, स्थान-स्थान पर चारण मुनियों के द्वारा देशना से जीवों को प्रतिबोधित किया जाता है, पूर्व से पश्चिम सागर तक फैले हुए जिस पर्वत से भरत खंड के दो भाग किए गए हैं, अत्यंत विशाल दक्षिण और उत्तर की दो श्रेणियों से जो अत्यंत शोभायमान है। उस पर्वत पर दक्षिण श्रेणी में विद्याधरों से परिपूर्ण, विचरती हुई विद्याधरियों के न पुर के झंकार से शब्दायमान, मकर तोरणादि अलंकृत द्वार देशोंवाले विद्याधरों के भवनों से विराजित, तीनों लोक की लक्ष्मी से परिपूर्ण रत्नसंचय नाम का एक नगर है, जहाँ के स्त्री-पुरुष अत्यंत प्रसन्न हैं । और नगर के सभी गुणोंसे जो विभूषित हैं, अनेक जातीय लाखों विद्याधरों से परिपूर्ण जिस नगर में सकल गुणनिधान पवनगति नामक श्रेष्ठ विद्याधर रहते हैं, विज्ञान-विनय संपन्न पति में अनुरक्त, अपने सौरभ से पवन को जीतनेवाली बकुलावली उनकी भार्या है, उसके साथ विषयसुख का अनुभव करते हुए उनका कालक्रम से मैं ही एक पुत्र उत्पन्न हुआ। जन्मदिन में ही हर्ष से पिताजी ने हर्ष से इस प्रकार वर्धापनक कराया जिससे नगर के लोग चकित हो गए, बारहवें दिन मातापिता ने प्रसन्नतापूर्वक “चित्रवेग" मेरा नाम रक्खा । कुछ बरस बीतने पर शुभतिथि नक्षत्र में पिताजी ने मुझे एक सुयोग्य अध्यापक के पास रक्खा । थोड़े ही दिन में अध्यापक के प्रभाव तथा मेरी बुद्धि के सामर्थ्य से मैं सभी कलाओं में निपुण बन गया। पिताजी ने भी आकाशगामिनी आदि कौलिक विद्याएँ साधन करने के लिए दी, क्रमशः मैं युवतियों के चित्त को हरनेवाले नवयौवन को प्राप्त हुआ।
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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