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________________ (१७) सुंदर शकुन लेकर विश्वासपात्र हितचिंतक व्यापारियों के साथ कुशाग्रपुर जाने के लिए अपने नगर से निकल गया। इस प्रकार धनदेव सार्थ जनसमुदाय के साथ थोड़ी-थोड़ी दूर पर विश्राम करता हुआ विशाल सार्थ के साथ जा रहा है, धीरे-धीरे वह सार्थ वस्तियों को पार करता हुआ एक भयंकर जंगल में आया, जिस जंगल में घने पत्तोंवाले वृक्षों के कारण आकाश में उड़ते हुए किंतु न दिखनेवाले पक्षियों के अस्तित्व का पता उनके कूजन स्वर से ही मालूम पड़ता था, जिस प्रकार नीतिशाली राजा की नगरी में कोई भी व्यक्ति उन्मार्गगामी नहीं होता है उसी प्रकार उस जंगल में कोई भी उन्मार्ग गमन नहीं करता था, अर्थात् दूसरा कोई रास्ता ही नहीं था, उस भयंकर जंगल के बीचो बीच होकर वह सार्थ जा रहा था, अपने कोलाहल की प्रतिध्वनि से पुराने वृक्षों के कोहरों को पूरित करता था, ऊँचे-ऊँचे वृक्षों की शाखा प्रशाखाओं से आकाश इस प्रकार आच्छादित था कि दिन में कभी भी सूर्य की किरणों का संताप ही नहीं लगता था, बंदरों के द्वारा किए गए बंकारों को सुनकर बैल डर जाते थे, और डरे हुए उन बैलों को रोकने के लिए गाड़ीवान हक्कार करते थे, उनके हक्कारों की प्रतिध्वनि से डरकर उल्लगण भी प्रत्येक दिशा में हुंकार शब्द करते थे, बैलों के गले में लटकते हए घंटों की ध्वनि तथा बैलों के खरों से उड़ती हुई धूल से सारा आकाश मंडल भर रहा था। मुनि धनेश्वर द्वारा विरचित सुबोध तथा रमणीय गाथाओं से युक्त रागरूपी अग्नि को शांत करने में जल के समान तथा द्वेषरूपी विषधर को शांत करने में मंत्र के समान सुरसुंदरीचरितनाम कथा का "अटवी प्रवेश वर्णन" नाम का यह प्रथम परिच्छेद समाप्त हुआ। ००० -२
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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