SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१६) ऐसा करना उचित नहीं है, अतः परदेश जाकर धन कमाकर अपनी इच्छा से दीन अनाथों को दान दूं यही अच्छा होगा। यह सोचकर माता-पिता के पास जाकर विनयपूर्वक हाथ जोड़कर कहने लगा कि आप मुझे आज्ञा दें कि मैं परदेश जाकर पर्याप्त धन कमाकर लाऊँ, माता ने कहा, पुत्र ? तेरे जाने का शब्द ही मेरे लिए असह्य है तो फिर परदेश जाने की बात तो दूर है। पुत्र ? तेरे पिता के द्वारा अजित लक्ष्मी इतनी है कि तू दान भोग करता हुआ भी इस का अंत नहीं कर सकेगा, धन कमाने के जो-जो कारण हैं तेरे पिता ने सब पूर्ण कर रक्खे हैं, तुझे व्यापार करने की क्या ज़रूरत है ? धनदेव ने कहा, माताजी ? जब लड़का छोटा रहता है अपनी माता के स्तनों का स्पर्श करता हआ शोभता है किंतु बालभाव बीत जाने पर वही लडका यदि माता के स्तनों का स्पर्श करे तो पाप का भागी होता है, इसलिए समर्थ पुत्रों के लिए पिता की लक्ष्मी भी माता के समान अभोग्य है, जो पुत्र समर्थ होने पर भी पिता द्वारा अजित लक्ष्मी का उपभोग करता है वह मेरे समान लोक में उपहास का पात्र बनता है, यह कहते हुए धनदेव की आँखें आँसू से भर आईं और वह माता के चरणों पर गिर पड़ा । तब धनधर्म सेठ ने उसके दुःख का कारण जानकर कहा कि पूत्र? तेरे इष्ट कार्य में कोई विघ्न नहीं देगा, पुत्र के अपमान की बातें बताकर उसने उसकी माता को भी समझाकर शांत कर दिया। इस प्रकार माता-पिता की आज्ञा लेकर धनदेव परदेश योग्य चारों प्रकार के किराणे लेकर जिनमंदिरों में अष्टाह्निक महोत्सव करवाकर साधुओं की पूजा करके माननीय पुरुषों का सन्मान करके समस्त नगर में उद्घोषणा करवाकर ज्योतिषियों के द्वारा बतलाए गए शुभ दिवस पर अनेक प्रकार के मांगलिक उपचार करने पर
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy