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दैववश मेरे लिए तो कुछ दूसरा ही हो गया । अतः भद्रे ? धाइयों सहित बालक को लेकर तुम अपने ससुराल ले जाओ, यह वहीं बढ़ेगा । 'अच्छा' कहकर उस बालक को लेकर अपने ससुराल सुरनंदन जाकर उसने ज्वलनप्रभ विद्याधर राज की प्रिय भार्या चित्रलेखा के पुत्र अपने पति जलकांत से सारी बातें बतलाई, उसने बड़े आदरभाव से उसकी बात को स्वीकार कर, जन्मोत्सव करके शुभदिन में उसका नाम मदनवेग रक्खा । क्रमशः बढ़ते हुए उसने जब यौवन प्राप्त किया, तब वह अत्यंत अविनीत, दुःशील अकार्यनिरत तथा कृतघ्न हो गया । कंचन देवी के गर्भ से उत्पन्न जलकान्त विद्याधर पुत्र जलवेग से उसकी बड़ी मित्रता हो गई, दोनों साथ ही खेलने में लगे हुए रहते थे ।
कुछ दिन के बाद सुरसुन्दरी को सिंह स्वप्न से सूचित शुभतिथि नक्षत्र योग में एक दूसरा पुत्र उत्पन्न हुआ । वह कामदेव समान सुन्दर, शूर, त्यागी प्रियंवद कार्यदक्ष तथा अत्यंत विनीत था, उसका नाम अनंगकेतु रक्खा गया ।
युवावस्था में आने पर राजा ने उसे युवराज बना दिया । अनेक विद्याओं की साधना करके वह इच्छापूर्वक विद्याधर नगरों में विचरने लगा ।
मधुमास प्राप्त होने पर अंतःपुर के साथ राजा अष्टान्हिक महोत्सव के लिए वैताढ्य शिखर पर गए | बड़े आडम्बर के साथ वैतादयवासी विद्याधर उपस्थित हुए । महोत्सव चल ही रहा था इतने में गंगावर्त से अनेक विद्याधरों के साथ अत्यंत सुंदरी अनंगवती नाम की कन्या वहाँ आई । उसको देखते ही युवराज अनंग मोहित हो गया, उसने अपने मित्र वसंत से पूछा कि यह किसकी कन्या है ? इसका क्या नाम है ? वसंत ने कहा कि
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