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________________ (१४९) एकांत में आकर कुछ-कुछ परिहास की बात करने लगा। सविकार दृष्टि से मुझे देखने लगा, अपने को अत्यंत अनुरक्त दिखलाने लगा। एक दिन तो कामात उस पापी ने लज्जा कुलमर्यादा विवेक छोड़कर एकांत में मुझ से कहा कि मैं अत्यंत काम पीडित हो रहा हूँ, अतः अपने अंगों के संगम से मेरे जीवन को सफल बनावें, आपके आधीन मेरे प्राण हैं, मैं आपका किंकर तथा आज्ञाकारी हूँ, मैं अत्यंत अनुरक्त हैं अत: आप मेरी इच्छा करें, प्रियतम ? उसकी बात सुनकर वजाहत होकर मैं सोचने लगी कि यह पापी तो जबर्दस्ती भी शीलखण्डन करेगा ही। यदि अप्रिय वचन से इसे फटकारती हूँ तो भी कुछ अनुचित कर बैठेगा। अतः तत्काल मौन धारण कर लेती हूँ, पीछे अवसर पाकर इस पापी का साथ छोड़कर भाग जाऊँगी। जब मैंने कुछ उत्तर नहीं दिया तब वह उठकर वहाँ से चला गया, रात आने पर सब के सो जाने पर अपने आभूषण लेकर पहरेदारों को वंचित करके उस सार्थ से निकलकर एक दिशा को पकड़कर घने जंगल के मार्ग से दुष्ट जानवरों की भयंकर आवाज़ सुनते हुए अंधेरी रात में विषम भूमि में चलते-चलते इस कूप में गिर पड़ी, पापी लोग जिस प्रकार नरक में कष्ट का अनुभव करते हैं उसी प्रकार कर्मवश मैंने भी पीड़ा का अनुभव किया किंतु सुरथ के भय से मुक्त होने से अपने को कृतार्थ मानकर भूख से व्याकुल बनकर इस कूप में चार दिन बिताए । मैंने जीने की आशा छोड दी थी। आज इस सार्थ के कलकल नाद को सुनकर सुरथ की शंका से मैं फिर भयभीत हो गई थी, उसके बाद आपके आदमी को ठीक से देखकर भी भय से कुछ कह न सकी। फिर उससे आपका नाम सुनकर शंका छोड़कर हर्षित होकर कूप से बाहर आई। इस प्रकार आपके विरह में मैंने
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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