SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१४८) अपने स्थान को जा रहा हूँ, मुझे अपने कर्तव्य का उपदेश दीजिए, कुलपति ने कहा कि गुरुजनपूजा आदि धर्मकार्य में यथाशक्ति प्रवृत्त हों तथा शरणागत वत्सल बनें, दूसरे, हस्तिनापुर के राजा श्री अमरकेतु की यह पत्नी कमलावती हाथी से हरण कर यहाँ ले आई गई है, यहाँ से हस्तिनापुर बहुत दूर है, बीच का रास्ता भयंकर है, ये तापसकुमार इसे वहाँ नहीं पहुंचा सकते हैं अतः आप यदि इसे हस्तिनापुर पहुँचा दें तो बहुत अच्छा हो, सुरथ ने कहा, भगवन ? आप जो कहें मैं अवश्य करूँगा, मैं स्वयं जाकर अमरकेतु को अर्पित कर दूंगा, कुलपति ने मुझसे कहा, वत्से ? तुम सुरथ के साथ जाओ नहीं तो फिर दूसरा सार्थ नहीं मिलेगा। मैंने सोचा कि इसके साथ जाना उचित होगा या नहीं? फिर मैंने कहा भगवन ? जो उचित हो आप कहें, उन्होंने कहा, यदि ऐसा है तो जाओ, उनकी आज्ञा से मैं उसके साथ चली । वहाँ से चलकर जब इस प्रदेश में आई तब सुरथ ने कुछ बहाना बनाकर इसी जंगल में डेरा डाल दिया। वह मेरे पास आने लगा, मेरा बहुमान करने लगा। एक दिन कुछ आभूषण लेकर एकांत में मेरे पास आकर उसने कहा, सुंदरि! आप विना आभूषण से शोभती नहीं हैं अतः इन आभूषणों को स्वीकार कीजिए । देव से दिए गए कुंडल आदि आभूषणों को पहचान कर मैंने कहा, सुरथ ? ये आभूषण तो मेरे हैं आपको कहाँसे प्राप्त हुए ? उसने कहा, सुंदरि? कुशाग्रपुर जाते हुए एक वणिक सार्थ को लूटकर आपके योग्य आभूषण मैंने प्राप्त किए । मैंने कहा कि मैंने तो ये आभूषण श्री दत्त (श्री देव) वणिक को दिए थे, उसने कहा, सुंदरि? तब तो अच्छा ही हुआ, आप स्वीकार करें, उसके दुष्ट भाव को नहीं जानते हुए मैंने आभूषण ले लिए, उसके बाद वह रोज़ मेरे पास
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy