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शूरसेन जनपद में जैन धर्म का विकास
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होता है कि तत्कालीन समय में सभी वर्गों में जैन धर्म स्वीकार करने की उत्सुकता थी। उपर्युक्त वर्गों के द्वारा जैन धर्म को अंगीकार करना तथा उसके प्रचार-प्रसार में योगदान देना आदि महत्वपूर्ण तथ्यों से स्पष्ट होता है कि उस समय समाज में समानता विद्यमान थी। सभी वर्ण के व्यक्ति स्वेच्छा से दान कर सकते थे।
शूरसेन जनपद के कंकाली टीले से प्राप्त अवशेषों के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि धम्मघोषा नामक स्त्री ने एक जैन मन्दिर का प्रासाद दान में दिया था। एक अन्य स्त्री उझत्तिका द्वारा महावीर स्वामी की मूर्ति तथा देवकुल दान में दिया गया था।
लवण शोभिका की पुत्री वसु नामक गणिका ने एक सुन्दर आयागपट्ट दान में दिया था।
उपर्युक्त तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि कुषाण काल में स्त्रियों की स्थिति अत्यधिक सम्मान जनक थी। जैन धर्म में एक गणिका को भी यह अधिकार था कि वह धार्मिक दान कर सकती थी। मथुरा कला के अन्तर्गत निर्मित जैन मूर्तियां एवं अन्य कलाकृतियां विश्व प्रसिद्ध रही हैं।
कुषाण कालीन ऐसे अभिलेख प्राप्त हुए हैं जिनमें विदेशी महिलाओं के नाम उल्लिखित हैं। जैसे- उझत्तिका, ओखारिका", ओखा, ओघा और आका आदि।
जैन धर्म सभी के लिए समान था। उच्च वर्ण, निम्न वर्ण तथा विदेशियों ने भी जैन धर्म को अंगीकार किया और उसके प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। कुषाण शासकों की धार्मिक सहिष्णुता का सर्वाधिक परिचय शूरसेन जनपद से प्राप्त पुरावशेषों के अध्ययन से मिलता हैं
कुषाणकाल में जैन धर्मानुयायियों को निर्ग्रन्थ भी कहा जाता था। अभिलेखीय साक्ष्य में जैनों के लिए अर्हत शब्द भी मिलता है।62
शूरसेन जनपद के कंकाली टीले की खुदाई से कुषाण कालीन तीर्थंकर प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं। यह प्रतिमाएँ चार प्रकार की हैं- प्रथम