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शूरसेन जनपद में जैन धर्म का विकास
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कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी प्रतिमाएं, दूसरी पद्मासन में बैठी हुई प्रतिमाएं, तीसरी खड़ी हुई सर्वतोभद्रिका और चौथी उसी तरह की आसन लगाई हुई मुद्रा में प्रतिमाएं ।
कुषाण शासक कनिष्क के समय में शूरसेन जनपद का सर्वाधिक विकास हुआ। यह जनपद राजनैतिक केन्द्र होने के साथ-साथ धर्म, कला, साहित्य एवं व्यापार का भी प्रमुख केन्द्र बना। कनिष्क बौद्ध धर्मानुयायी था लेकिन वह एक धर्म सहिष्णु शासक था। उसने जैन धर्म को भी प्रोत्साहन प्रदान किया।
कनिष्क के समय में देशी व्यवसाय की भी उन्नति हुई और साथ ही विदेशों के साथ महत्वपूर्ण सम्पर्क भी स्थापित हुआ। पाटलिपुत्र से सारनाथ, कौशाम्बी, श्रावस्ती, मथुरा, पुरुषपुर आदि नगरों से होता हुआ एक बड़ा व्यापारिक मार्ग खोतान तथा काशगर को जाता था। काशगर से चीन के लिए मार्ग जाता था। __ जैन ग्रन्थों में शूरसेन जनपद को एक महत्वपूर्ण व्यापारिक स्थल के रूप में दर्शाया गया है जो वस्त्र निर्माण के लिए विशेष महत्वपूर्ण था। व्यापार के लिए शूरसेन जनपद सर्वाधिक प्रसिद्ध केन्द्र रहा है।
कुषाणों के समय में शूरसेन जनपद का महत्व बढ़ा। विविध धर्मों का विकास होने के साथ यहां स्थापत्य और मूर्तिकला की अभूतपूर्व उन्नति हुई। शूरसेन की राजधानी मथुरा में निर्मित मूर्तियों की मांग देश के कोन-कोने में होती थी। ___ उत्तर भारत में प्रमुख राजमार्गों पर स्थित होने के कारण शूरसेन जनपद की व्यावसायिक उन्नति भी हुई। इस काल में संगठित रूप में विविध शिल्पों और व्यापार के संचालन के उदाहरण इस जनपद में मिलते हैं।
उत्तरापथ मार्ग पर पड़ने वाले प्रमुख सांस्कृतिक एवं व्यापारिक केन्द्र सकल, इन्द्रप्रस्थ, कान्यकुब्ज, प्रयाग, वाराणसी और पाटलिपुत्र आदि
थे।