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________________ शूरसेन जनपद में जैन धर्म का योगदान संसार की ललित कलाओं में चित्रकला एक ऐसी कला है जिसके द्वारा सिद्धान्त और मान्यताओं का सबसे अधिक प्रचार किया जा सकता है । इसके द्वारा गम्भीर और व्यापक मनोभावों को बड़ी सरलता एवं सहजता से जनता के समक्ष प्रस्तुत किया जा सकता है। लोक भावनाओं और क्रिया-कलापों को चिरस्थायी बनाने और उनका प्रतिनिधित्व करने की अपूर्व क्षमता चित्रकला में निहित है । कभी-कभी हृदयगत् मूल्यवान भावों के प्रवाह का यथागत स्पष्टीकरण शब्दों द्वारा नहीं किया जा सकता है, परन्तु रंग और रेखाओं के माध्यम से अकथनीय विचारों को प्रकट करना बहुत सरल हो जाता है। 159 जैन धर्मानुयायियों ने चित्रकला के विकास में भी अपूर्व योगदान दिया। प्राचीनतम् जैन साहित्य में चित्रकला के अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं। छठे जैन श्रुतांग नायाधम्म- कहाओ " में धारणी देवी के शयनागार का सुन्दर एवं सजीव वर्णन किया गया है, जिसका छत लताओं, पुष्पवल्लियों तथा चित्रों से अलंकृत किया गया था । बृहत्कल्पसूत्र भाष्य" में एक गणिका का उल्लेख है, जो चौसठ कलाओं में कुशल थी । उसने अपनी चित्रसभा में अनेक प्रकार के जातियों एवं व्यवसायों के पुरूषों के चित्र लगाये थे । आवश्यकटीका *" के पद्य में एक चित्रकार का उदाहरण देकर उल्लिखित किया गया है कि किसी भी व्यवसाय का अभ्यास ही उसमें पूर्ण प्रवीणता प्रदान कराता है । चूर्णिकार ने इस तथ्य को समझते हुए कहा है कि निरन्तर अभ्यास द्वारा चित्रकार रूपों के समुचित प्रमाण को बिना नाप-तौल ही साध लेता है। एक चित्रकार के हस्त - कौशल का उदाहरण देते हुए आवश्यक टीका में यह भी उल्लिखित है कि एक शिल्पी ने मयूर का पंख ऐसे कौशल से चित्रित किया था कि राजा उसे यथार्थ वस्तु समझ कर हाथों में लेने का प्रयत्न करने लगा ।
SR No.022668
Book TitleShursen Janpad Me Jain Dharm Ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSangita Sinh
PublisherResearch India Press
Publication Year2014
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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