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शूरसेन जनपद में जैन धर्म का योगदान
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___ शुंग-काल की मृणमूर्तियाँ मौर्य कालीन मूर्तियों की अपेक्षा अत्यधिक विकसित एवं कलात्मक है। इस समय मृणमूर्ति कला में जो क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ। उसने इसके रूप को उन्नत बना दिया था। उस कला की मृणमूर्तियाँ पूरी तरह साँचों में ढालकर बनाई गई है, अतः उनके किसी अंग अथवा अलंकरण को अलग से जोड़ने की आवश्यकता नहीं हुई। इनका रंग गेरूआ है। इनमें मातृकाओं के कई रूपों के दर्शन होते हैं। इनके अतिरिक्त नर-नारियों, पशुओं और विविध वस्तुओं की मृणमूर्तियाँ भी प्रकाश में आयीं। ___ शूरसेन जनपद से प्राप्त इन मृणमूर्तियों के ललितकला को समझने में इनका महत्वपूर्ण योगदान है।
शुंग-कुषाण कालीन मूर्तियों में स्त्रियों के विभिन्न रूप दृष्टिगोचर होते हैं। इनमें केश-विन्यास की अनेक शैलियाँ हैं। किसी की बेणियाँ लटक रही है, तो किसी के बाल बिखरे हुए हैं, अन्य विशाल जूड़ा बाँधे हैं। एक आकृति में महिला प्रसाधन में लीन है। उसके एक हाथ में दर्पण है, और दूसरे हाथ से वह अपने केश सम्भाल रही है। सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह एक गद्देदार बड़ी व ऊँची कुर्सी पर बैठी है, जो आजकल की आराम कुर्सी जैसी प्रतीत होती है। __ भारतीय कला में खजुराहों, कोणार्क पुरी आदि के रीति प्रधान अंकनों की प्रायः चर्चा होती है, किन्तु उससे भी शताब्दियों पूर्व शूरसेन जनपद में पुरूष तथा स्त्रियाँ मिट्टी में अंकित दिखती हैं।
उत्तर भारत में जैनकला के जितने प्राचीन केन्द्र थे। उनमें शूरसेन जनपद की राजधानी मथुरा का स्थान सर्व प्रमुख है। यहाँ के चित्तीदार लाल बलुआ पत्थर की निर्मित असंख्य कलाकृतियाँ शूरसेन जनपद से प्राप्त हुई हैं। इनमें तीर्थंकर आदि की प्रतिमाओं के अतिरिक्त चौकीदार अलंकृत आयागपट्ट, वेदिका-स्तम्भ, तोरण, तथा द्वार स्तम्भ आदि प्रमुख हैं। शूरसेन जनपद के कंकाली टीले से प्राप्त जैन आयागपट्ट विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।50