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शूरसेन जनपद में जैन धर्म का योगदान
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अहिंसा व्रत से बड़ा और कोई व्रत नहीं है। यह सर्व आश्रमों का हृदय, सभी शास्त्रों का मर्म और सभी व्रतों का निचोड़ है।
समन्वय तथा पारस्परिक प्रेम को बढ़ाने के लिए महावीर स्वामी ने अनेकान्त सिद्धान्त प्रतिपादित किया। जैन धर्मावलम्बियों ने अनेकान्त सिद्धान्त को स्वीकार कर पारस्परिक सहिष्णुता का भाव बढ़ाया। ___ अनेकान्त के अनुसार सत्य के अनेक पक्ष होते हैं तथा प्रत्येक पक्ष को दूसरे पक्ष का सम्मान करना चाहिए। अनेकान्त एक व्यापक जीवन दर्शन है। उसकी व्यावहारिकता धर्म के नैतिक आधारों और सहिष्णु प्रकृति के प्रसार के लिए आवश्यक है।
अनेकान्त की विचार धारा विभिन्न धर्मों तथा आस्थाओं के बीच समन्वयात्मक प्रवृत्ति को बढ़ाने में सहायक सिद्ध हुई। जहाँ अहिंसा को सामाजिक आदर्श कहा जा सकता है वहाँ अनेकान्त बौद्धिक क्षेत्र का आदर्श है।
भगवान पार्श्वनाथ ने अपनी महान सांस्कृतिक साधना के द्वारा इस बात पर विशेष बल दिया कि अहिंसा ही संस्कृति की आत्मा है। भगवान महावीर ने अहिंसा, स्याद्वाद, कर्मवाद और साम्यवाद की जिस पावन धारा को तीव्र वेग से प्रवाहित किया, उसमें पवित्र होकर मनुष्य सदैव स्थायी सुख-शान्ति एवं अमरत्व को प्राप्त करता रहेगा।
भगवान महावीर के पश्चात भद्रवाहु, कुन्द कुन्दाचार्य, स्थूलभद्राचार्य, उमास्वामी, समन्दभद्र, अकलंकदेव, हेमचन्द्र, स्कन्दिलाचार्य आदि आचार्यों ने जैन धर्म एवं संस्कृति का संरक्षण एवं पोषण किया।
जैन धर्म में व्यक्ति पूजा की अपेक्षा गुणों को अधिक महत्व दिया जाता है। यहाँ साधना का लक्ष्य है आत्म-विश्वास और पूजा का लक्ष्य है दूसरों को आदर्श मानकर उनके गुणों की आराधना ।38 ___दर्शन के क्षेत्र में जैन धर्म का महत्वपूर्ण योगदान है। जैन धर्मावलम्बियों के ‘णमोकार मन्त्र में, जिसे जैन परम्परा का मूलमन्त्र कहा जाता है, पंच परमेष्ठी को नमस्कार किया गया है। अर्थात् उन