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________________ 152 शूरसेन जनपद में जैन धर्म का विकास सभी आत्माओं को नमस्कार किया गया है, जो आत्म-विकास की चरम सीमा को प्राप्त कर चुके हैं अथवा पहुँचने के लिए सतत् प्रयत्नशील हैं। 'अरहंत शरणम् पवज्जामि' में उन्हीं आत्माओं की शरण लेने की बात कही गयी है, जो अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य गुणों के धारक है। ‘णमो लोए सत्व साहूणं, ज्ञान तथ्य का प्रतीक है कि इस मन्त्र के प्रणेताओं का हृदय अत्यधिक उदार, विशाल और मध्यस्थ भाव से ओत-प्रोत था। जैन धर्म में 'समत्व' का सिद्धान्त भी बहुत महत्वपूर्ण है। समत्व का जहाँ निवास है वहाँ विश्व प्रेम का स्वतः जन्म होता है। पूर्णता की प्राप्ति इसका अन्तिम लक्ष्य और विश्व-कल्याण की कामना इसकी प्रारम्भिक भूमिका है। यह धर्म सम्पत्ति- त्याग के लिए है न कि निर्धनों के शोषण के लिए। __स्याद्वाद जैन धर्म की अभूत पूर्व देन है। यह धार्मिक सहिष्णुता और समन्वयवाद का प्रतीक है। __ जैन धर्म के अनुसार व्यक्ति अपना विकास स्वयं के ही परिश्रम से कर सकता है। सुख-दुःख, उत्थान-पतन सभी के लिए वह स्वयं उत्तरदायी है। जो जैसा कर्म करता है, उसी के अनुसार फल की प्राप्ति होती हैं। कोई ईश्वर या अन्य ब्राह्य शक्ति इस कारण कार्य नियम में हस्तक्षेप नहीं कर सकती है। जैन दर्शन के अनुसार कर्म एक स्वतन्त्र द्रव्य है। ___ वर्तमान में उपलब्ध जैन सिद्धान्तों महावीर स्वामी की साधना और चिन्तन का परिणाम है। महावीर स्वामी ने जीवन और जगत से सम्बन्धित किसी भी जिज्ञासा को अव्याकृत कह कर स्थगित नहीं किया। उन्होंने प्रत्येक जिज्ञासा का संतुलित समाधान प्रस्तुत किया। __जैन दर्शन सम्यक्दर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यक्चरित्र की धुरि पर प्रतिष्ठित हैं। दृष्टि जब तक पवित्र नहीं है, ज्ञान सच्चा नहीं हो सकता है और सच्चे ज्ञान के बिना सदाचरण की अपेक्षा नहीं की जा सकती है।
SR No.022668
Book TitleShursen Janpad Me Jain Dharm Ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSangita Sinh
PublisherResearch India Press
Publication Year2014
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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