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________________ 144 शूरसेन जनपद में जैन धर्म का विकास दस प्रकीर्णक और दो चूलिका सूत्रों की भाषा अर्द्धमागधी है तथा षड्खण्डागम सूत्र और कसायपाहुड की भाषा शौरसेनी। इसके अतिरिक्त सिद्धान्त, कर्म और आचार विषयक अनेक ग्रन्थ शौरसेनी भाषा में परिलक्षित है। अर्द्धमागधी आगम साहित्य पर नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका विवरण, विवृत्ति, दीपिका, अवचूरि, अवचूर्णी, व्याख्या आदि रूप में असंख्य साहित्य का सृजन हुआ है। __ ई. पू. छठी शताब्दी में महावीर एवं बुद्ध के धर्मोपदेश के फलस्वरूप प्राकृत साहित्य का प्रादुर्भाव हुआ। विभिन्न विधाओं का प्राकृत भाषा में सृजन हुआ, जिसमें आगम, शिलालेख, महाकाव्य, खण्डकाव्य, चरितकाव्य, मुक्तक काव्य एवं कथा प्रमुख हैं। आगम ग्रन्थों पर टीकाएं भी लिखी गई है। आगम ग्रन्थों में शील, सदाचार, विचार-समन्वय, सृष्टि, कर्म संस्कार सम्बन्धी प्रवृत्तियों का उल्लेख किया गया है। सिद्धान्त साहित्य में गुण स्थान और मार्ग तथा कर्म साहित्य में कर्म स्वरूप और उसके फल देने की प्रक्रिया का वर्णन दृष्टिगोचर होता है। आचार विषयक साहित्य में अहिंसामूलक व्यवहार को स्थिर रखने का उपदेश समाहित है।13 शूरसेन जनपद में शौरसेनी भाषा में आगमों का संकलन किया गया। भाषा एवं साहित्य के क्षेत्र में इस जनपद का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। समुदाय का क्षेत्र विस्तार होने पर क्षेत्रीय आधार पर विभिन्न विशेषताएं उत्पन्न हुई। भाषा वैज्ञानिकों ने क्षेत्रीय आधार पर मुख्यतः पाँच भागों में विभक्त किया है- शौरसेनी, मागधी अर्द्धमागधी, महाराष्ट्री और पैशाची। जैन मतावलम्बियों ने अपने धर्म एवं साहित्य का प्रचार-प्रसार करने के लिए प्राकृतभाषा को माध्यम बनाया। जैनाचार्यों ने ही आलोचनात्मक ग्रन्थों का प्रणयन किया। प्रत्येक भाषा को जैन विद्वानों ने अपनी साहित्यिक रचना से समृद्ध किया।
SR No.022668
Book TitleShursen Janpad Me Jain Dharm Ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSangita Sinh
PublisherResearch India Press
Publication Year2014
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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