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________________ 126 शूरसेन जनपद में जैन धर्म का विकास किया गया है, परन्तु स्मृति ग्रन्थों में इस पेशे को सम्मानजनक नहीं कहा गया। जातक ग्रन्थों में गणिकाओं को केवल उदार ही नहीं बताया गया है, अपितु उन्हें आदर की दृष्टि से भी देखा गया है । " गणिकाएँ अनेक कलाओं में निपुण होती थीं । बृहत्कल्पभाष्य में चौंसठ कलाओं में पूर्ण एक गणिका का उल्लेख किया गया है। जैन और बौद्धकाल में गणिकाएँ नगर की शोभा मानी जाती थीं । राजा उन्हें अपनी राजधानी का रत्न समझता था । कंकाली टीले से प्राप्त एक कुषाणकालीन जैन आयागपट्ट के लेख से विदित होता है कि गणिका लवण शोभिका की पुत्री वसु ने यह आयागपट्ट दान में दिया था।* इस आयागपट्ट पर सम्पूर्ण स्तूप की आकृति निर्मित है I इस प्रकार गणिकायें भी जैन धर्म के प्रति आदर भाव रखती थीं और दान, धर्मादि कार्यों को करने में महत्वपूर्ण योगदान देती थीं। 1 अधिकांश चरण- चौकी पर उत्कीर्ण लेखों से विदित होता है कि सर्वाधिक प्रतिमा दान एवं आयागपट्ट दान श्राविकाओं ने दिया था । इस पर माता, दादी, पत्नी, पुत्री, सास, बहू, पौत्री आदि के रूप में वर्णित है। समाज के प्रत्येक वर्ग द्वारा किया गया जैन धार्मिक कार्य प्रशंसनीय है। समाज में साध्वी स्त्रियों का उल्लेख भी हुआ है । यद्यपि उनका जीवन कठोर था और मुनियों की अपेक्षा उन्हें अधिक अनुशासित जीवन व्यतीत करना पड़ता था । 7 विदेशी स्त्रियों ने भी अर्हतपूजा के प्रति श्रद्धा प्रकट की । कुषाणकालीन कंकाली टीले से प्राप्त एक तीर्थंकर प्रतिमा पर तीन लम्बी और तीखे नाक-नक्श वाली स्त्रियों का अंकन किया गया है । इस पर गान्धार कला का प्रभाव दृष्टव्य है । तीनों महिलाएं साड़ी पहने हुए हैं जिसमें विदेशी प्रभाव परिलक्षित होता है | 38 महावीर स्वामी ने सभी प्राणियों के प्रति दया दिखाई तथा उनके धर्म का द्वार सभी वर्ग एवं व्यवसाय के लिए खुला था । जैन धर्म के प्रमुख
SR No.022668
Book TitleShursen Janpad Me Jain Dharm Ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSangita Sinh
PublisherResearch India Press
Publication Year2014
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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