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________________ शूरसेन जनपद में जैन संस्कृति 127 सिद्धान्तों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह तथा क्षमा, मृदुता आदि में अहिंसा सर्वोपरि है। जैन धर्म में अनेक प्रकार के व्रतों और उपवासों, भावनाओं और तपस्याओं, ध्यानों और योगों का उद्देश्य आत्मवृत्ति प्राप्त करना। ___ तीर्थंकरों और आचार्यों ने इस वृत्ति को जीवन में स्थापित करने के लिए जो उपदेश दिया वह अनेक जैन ग्रन्थों में वर्णित है। अर्धमागधी, शैरसनी, महाराष्ट्री, अपभ्रंश प्राकृत एवं संस्कृत में जैन धर्म का विपुल साहित्य सुरक्षित है जो अपनी भाषा, विषय, शैली व सजावट के गुणों द्वारा अपना विशिष्ट स्थान रखता है। इनका अद्वितीय महत्वपूर्ण स्थान है। शूरसेन जनपद में सांस्कृतिक गतिवधियों का प्रमुख साक्ष्य साहित्यिक ग्रन्थ ही हैं। जैन धर्म के आगमों का प्रामाणिक पाठ निश्चित करने के लिए चौथी शताब्दी में आचार्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में शूरसेन जनपद में एक धर्म परिषद का आयोजन किया गया। उसमें जो पाठ निश्चित किए गए उसे जैन धर्म में ‘माथुरी वाचना' के नाम से जाना जाता है क्योंकि सभा शूरसेन जनपद की राजधानी मथुरा में बुलायी गई थी। कंकाली टीले के उत्खनन से एक मात्र सरस्वती की कुषाणकालीन प्रतिमा प्राप्त हुई है। यह सर्वाधिक प्राचीन अभिलिखित प्रतिमा है। प्रतिमा के दोनों कलाइयों में कंगन जैसे आभूषण उत्कीर्ण है, जिससे स्त्रियों का आभूषण के प्रति प्रेम प्रकट होता है। __ मथुरा कला शैली के कलाकारों ने पुस्तकधारिणी इस सरस्वती प्रतिमा का निर्माण कर जैनागमों को लिपिबद्ध कराने के आन्दोलन को महत्वपूर्ण प्ररणा प्रदान की। सर्वप्रथम प्रतिमाओं में श्रीवत्स लांछन का निर्माण मथरा कला शैली के अन्तर्गत प्रारम्भ हुआ। बाइसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के भगवान श्री कृष्ण एवं बलराम का अंकन शूरसेन जनपद की मूर्तियों में दृष्टिगोचर होता है।
SR No.022668
Book TitleShursen Janpad Me Jain Dharm Ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSangita Sinh
PublisherResearch India Press
Publication Year2014
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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