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________________ शूरसेन जनपद में जैन मूर्तिकला जैन मूर्तिकला की सर्वोत्तम प्रगति कुषाण युग में दृष्टिगोचर होती है। कुषाण युग में जैनों के पूजनीय स्तूप, चैत्यवृक्ष, धर्मचक्र, श्रीवत्स, स्वास्तिक मांगलिक चिन्ह, स्तम्भ, ध्वज, विकसित कमल, मत्स्य युग्म, पूर्णघट, त्रिरत्न, तीर्थंकर प्रतिमाएँ, देवी लक्ष्मी एवं सरस्वती की मूर्ति सराहनीय है। कुषाण युग की सर्वतोभिद्रका मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई हैं जो समवसरण की प्राचीन परम्परा का विकसित रूप थी। कुषाणकालीन तीर्थकर प्रतिमाएं दो रूपों में प्राप्त हुई हैं। आसनस्थ एवं कायोत्सर्ग मुद्रा शूरसेन जनपद के शिल्पकारों ने ऋषभ एवं महावीर की कायोत्सर्ग मुद्रा में निर्मित किया था लेकिन उनकी पद्मासन मुद्रा में ध्यानस्थ मूर्ति कुषाणकाल की प्राप्त हुई है। कुषाणकाल की एक ध्यानस्थ प्रतिमा आदिनाथ की प्राप्त हुई है। प्रतिमा का मस्तक एवं बाहु खण्डित है तथापि खरौंचा हुआ किनारीदार प्रभावल अधिकांश सुरक्षित है। वक्ष पर श्रीवत्स का अंकन है तथा हाथों और पैरों के तलुवों पर चक्र चिन्ह उत्कीर्ण है। आसन पर एक स्तम्भ के ऊपर धर्मचक्र का अंकन है। दस स्त्री-पुरुष अर्चना कर रहे हैं, जिनमें से दो धर्मचक्र स्तम्भ के निकट घुटना टेके हैं और अन्य खड़े हैं। ___ यह अभिलिखित प्रतिमा है। लेख के अनुसार प्रतिमा की प्रतिष्ठा महाराज राजाधिराज देवपुत्र शाही वासुदेव के शासनकाल संवत् 84 अर्थात् 162 ई. में कुमारदत्त की प्रेरणा से भट्टदत्त उगभिनक की पुत्रवधू ने स्थापित कराई थी। यह वर्णित क्षेत्र के बलभद्र कुण्ड नामक स्थान से मिली। कंकाली टीले से एक अभिलिखित ध्यानस्थ प्रतिमा 161 ई. की उपलब्ध हुई है जिसका मस्तक एवं बायाँ हाथ लुप्त है। वक्ष पर श्रीवत्स का अंकन है। लेख के अनुसार जिनदासी ने इसे प्रतिष्ठित कराया था। कंकाली टीले से एक अभिलिखित प्रतिमा प्राप्त हुई है। चरण चौकी पर उपासकों एवं धर्मचक्र का अंकन किया गया है। अभिलेख के अनुसार वर्धमान की यह प्रतिमा कोट्टिय गण के धरवृद्धि और सत्यसेन
SR No.022668
Book TitleShursen Janpad Me Jain Dharm Ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSangita Sinh
PublisherResearch India Press
Publication Year2014
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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