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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य स्वीकार कर पाएगी।
___वास्तव में तो निशीथभाष्य की चूर्णि के अनुसार और बृहत्कल्पसूत्र भाष्य (गा. ९७३)की वृत्ति के अनुसार भंडसंक्रांति स्वतंत्रतया नमक को अचित्त करने के लिए सक्षम परिबल है। स्वस्थान में ही रहा हुआ, सौ योजन न गया हुआ भी नमक भंडसंक्रांति द्वारा ही अचित्त हो सकता है वैसा निशीथचूर्णिकार ने बताया है। ये रहे उनके शब्द : 'तं च लोणादि जोयणसयमगयं पि सट्ठाणे अंतरे वा विद्धंसति भंडसंकंतीए....'। (नि.भा. ४८३३ चू.) जब केवल भंडसंक्रांति से ही = विशिष्ट प्रकार की हलनचलन क्रिया से ही तीक्ष्णयोनिक सचित्त नमक विध्वस्त हो सकता हो तब ‘प्रस्रवणादि को व्यवस्थित हिलाने से उसमें संमूर्छिम मनुष्य की योनि विध्वस्त हो सकती है' - ऐसी प्रसिद्ध परंपरा अनुचित या अनागमिक नहीं कह सकते... हाँ ! इसके आधार पर वैसी कोई नवीन परंपरा या नूतन प्रणालिका हम खड़ी नहीं कर सकते... परंतु अपने पूर्वाचार्यों में तथाप्रकार की जो वृत्त-अनुवृत्त परंपरा हो उसे शास्त्रअविरुद्ध अवश्य घोषित कर सकते हैं। * संमूर्छिम मनुष्य की विराधना अवश्यंभावी
SHEREMONETIRE
यहाँ अत्यंत उल्लेखनीय बाबत यह है कि पूरी रात तक मूत्र रखने वगैरह के विधान को आपवादिक - कारणिक ही मानना चाहिए, 'संमूर्छिम मनुष्य की कायिक विराधना संभवित नहीं' - ऐसी मान्यता के स्वीकार के बावजूद भी।
एक प्रश्न का जवाब दें - मल, मूत्रादि सूख जाने के बाद संमूर्छिम की उत्पत्ति रुक जाती है या चालु ही रहती है? मूत्रादि अत्यंत सूख कर पर्यायांतर को प्राप्त हो तत्पश्चात् भी उसमें संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति जारी रहने की बात कतई युक्तसंगत या आगमसंमत नहीं हो सकती । अतः मानना ही रहा की मूत्रादि सूख जाने पर संमूर्छिम मनुष्य