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________________ संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य की उत्पत्ति रुक जाती है। इसका मतलब यही हुआ कि शरीर के अंदर संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति होने की रामलालजी महाराज की मान्यता का स्वीकार करने वाले कोई महात्मा, सूख जाए उस तरह प्रस्रवणादि परिष्ठापन करे तो उसके द्वारा संमूर्छिम मनुष्य की विराधना होगी ही, क्योंकि उनके मत में शरीरस्थ मूत्रादि तो संमूर्छिम मनुष्य से युक्त ही होते हैं और बाहर सूख जाए उस तरह उसे परठने से उनकी मृत्यु हो जाती है। तो फिर संमूर्छिम मनुष्य की कायिक विराधना शक्य नहीं - यह सिद्धांत कैसे खड़ा रहेगा? तथा इस विराधना से बचने हेतु मूत्रादि सूख न जाए उस तरह, लंबे समय तक आर्द्र रहे उस तरह उसकी हिफाज़त करने की आपत्ति आएगी, क्योंकि शरीरनिर्गत मूत्र संमूर्छिम मनुष्य से युक्त होने की रामलालजी महाराज की मान्यता है और यदि वे मूत्रादि सूख जाए तो संमूर्छिम मनुष्य की विराधना होती है। जैसे अनाभोगादि कारणवश सचित्त पानी वहोर लिया हो तो उस पानी को उसके मूलस्थान में परठ कर पानी के उन जीवों की रक्षा करने की बात आगम में बताई है, क्योंकि अन्यत्र परठने में सूख जाना वगैरह कारणों से पानी के उन जीवों की विराधना हो सकती है। उसी तरह संमूर्छिम मनुष्ययुक्त मूत्रादि सूख जाने से उसमें रहे संमूर्छिम की विराधना होने से वह सूख न जाए वैसी सावधानी बरतने की आपत्ति आएगी। यहाँ ऐसी दलील कर सकते हैं कि - "संमूर्छिम मनुष्य युक्त मूत्रादि और सचित्त पानी - दो बाबतें भिन्न हैं। सचित्त पानी को उसके मूलस्थान में यतनापूर्वक परठ देना शक्य है, मूत्रादि में वैसी यतना संभवित नहीं है। मूत्रादि को सदैव रखने से अनुचित प्रवृत्ति - लोकगर्हादि की आपत्ति आती है। साथ में संमूर्छिम मनुष्य की विराधना दीर्घकाल तक चलती है, बढ़ती है। अतः मूत्रादि को रखना नहीं, परंतु परठ देना
SR No.022666
Book TitleSamurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijaysuri, Jaysundarsuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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