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________________ 25000 संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य ही उचित है... क्योंकि मूत्रादि के सूख जाने से संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति रुक जाती है..." इस कथन के द्वारा यह बात सिद्ध हो गई की मल-मूत्रादि जितने अधिक समय तक आर्द्र - तरल अवस्था में रहेंगे उतने अधिक समय तक संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति - नाश जारी ही रहेंगे। परिणामतः संमूर्छिम मनुष्य की विराधना होगी ही। समग्र रात्रि मूत्रादि रखने में पूरी रात तक संमूर्छिम मनुष्य की विराधना चालु ही रहती है। अतः जल्द से जल्द सूख जाए उस तरह यदि समय पर उसे परठ दें तो उस विराधना की परंपरा स्थगित हो जाएगी। इस तरह संमूर्छिम मनुष्य की विराधना अपनी कायिक प्रवृत्ति द्वारा न मानने पर भी पूरी रात मूत्रादि को निष्कारण या सकारण रखने में उसकी विराधना की आपत्ति तो खड़ी ही रहेगी। (इस विराधना को देखते और जानते हुए भी शास्त्रकार भगवंत पूरी रात मूत्रादि रखने का विधान निष्कारण तो करते नहीं। अतः वे विधान विशिष्टकारणसापेक्ष आपवादिक विधान हैं-ऐसा मानना ही रहा।) इस तरह सिद्ध होता है कि - “संमूर्छिम मनुष्य की कायिक विराधना शक्य नहीं। शरीर के भीतर में या बाहर रही हुई अशुचिओं में सर्वत्र संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति निरंतर चालु रहती है" - ऐसी मान्यताएँ आगमिक तथ्यों से जोजनों दूर हैं, आगमविरुद्ध हैं। इसका कारण यह है कि आगमअमान्य ऐसी, मूत्रादि को लंबे समय तक कायम आर्द्र अवस्था में स्थापित रखने की, वे सूख न जाए उस तरह उन्हें नहीं परठने की - ऐसी नई-नई आचरणाओं को मान्य करने की आपत्ति आती है। तथा आर्द्र अवस्था में लंबे समय तक स्थापित रखने से लंबे समय तक संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति-नाश की परंपरा को चलाने की आपत्ति भी खड़ी ही रहती है। अतः जहाँ कहीं भी शास्त्रकारों ने मूत्रादि को लंबे समय तक स्थापित REATE Bastu
SR No.022666
Book TitleSamurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijaysuri, Jaysundarsuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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