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________________ संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य रखने की बात की है वहाँ प्रवचनविराधना, आत्मविराधना वगैरह बड़े दोषों से बचने का शास्त्रकारों का आशय होता है। परंतु 'मूत्रादि को लंबे समय तक स्थापित रखने में कोई विराधना नहीं होती' - वैसा बताने का आशय नहीं होता। यह बात सिंहावलोकन न्याय से, प्रस्तुत में बद्धमूल होती है। इस तरह B-5 क्रमांक विचार के परीक्षण से भी संमूर्छिम मनुष्य के अहिंस्य होने की बात आगमिक सिद्ध नहीं होती। . कृमि विचार समीक्षा B-6 क्रमांक विचारबिंदु में रामलालजी महाराज ने ऐसा बताया है कि “कृमि वगैरह की रक्षा हेतु शास्त्रकारों ने यतना बताई है, परंतु संमूर्छिम मनुष्य की विराधना से बचने के लिए कोई यतना नहीं बताई है। अतः संमूर्छिम मनुष्य की विराधना शक्य न होने का आगमिक पुरुषों को अभिप्रेत है।" यह बात अत्यंत वाहियात कक्षा की गिनी जा सकती है, क्योंकि संमूर्छिम मनुष्य की विराधना से बचने के लिए अनेकविध यतनाएँ पूर्वोक्त पद्धति से शास्त्रकारों ने दर्शाई ही हैं। यह बात अनेक प्रकार से पहले सिद्ध कर चुके हैं। उच्चार के विर्सजन के समय कृमिरोग वाले श्रमण के मल में कृमि विद्यमान होते हैं। अतः उनकी तत्काल सुरक्षा विषयक यतना करना बताया है। विसर्जित हुए मल-मूत्रादि में तत्काल संमूर्छिम मनुष्य उत्पन्न नहीं हो जाते। किन्तु अंतर्मुहूर्त के पश्चात् उत्पन्न हो सकते हैं (देखिए पृ. १२)। इससे वे शीघ्रतया सूख जाए उस तरह परठने में शास्त्रोक्त (देखिए पृ. ८९) यतना बरतनी है। इतनी हिफाज़त मात्र से संमूर्छिम की उत्पत्ति ही नहीं होती तो फिर उसकी विराधना को रोकने हेतु अन्य यतना की बात कहाँ से लब्धप्रसर होगी? यह तो सामान्य बुद्धि से समझ सकें वैसी बात है।
SR No.022666
Book TitleSamurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijaysuri, Jaysundarsuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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