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________________ संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य गीतार्थ पुरुषों के द्वारा प्रवृत्त और अनिषिद्ध हो, वृत्त-अनुवृत्त हो, तथा शास्त्रविरुद्ध न हो वह अपने आप शास्त्रसिद्ध-आगमसंमत साबित होती है। ऐसा यहाँ सहजसिद्ध मेलजोल है। भंडसंक्रांति-अनाहारता-वातादि कारणों से सचित्त नमक विधस्तयोनिक = अचित्त होता है - वैसी बात निशीथभाष्य के प्रस्तुत श्लोक में बताई है। इसके द्वारा भंडसंक्रांति वगैरह योनिविध्वंसक परिबल हैं - वैसा सूचित होता है। भंडसंक्रांति अर्थात् विशिष्ट प्रकार की हलनचलनरूप क्रिया। (भंडसंक्रांतित्वेन नहीं, अपितु तथाविधक्रियात्वेन ही योनिविध्वंसकत्व इष्ट है।) इसी प्रकार की, किंतु मंद ऐसी हिलाने की प्रक्रिया संमूर्छिम की योनि का विध्वंस करे वह बात काल्पनिक नहीं। जैसे १० पहलवान मिल कर सिमेंट के मज़बूत खंभे का विध्वंस कर सकते हो तो प्रत्येक में अंशतः ईंटविध्वंसक शक्ति हाजिर होने से मिट्टी की कच्ची ईंट एक ही पहलवान एक ही मुक्का मार कर तोड़ दे वह बात वाजिब है। सिमेंट के मज़बूत खंभे को तोड़ने के लिए चाहे १० पहलवान आवश्यक हो, परंतु मिट्टी की कच्ची ईंट हो तो एक पहलवान का सामान्य मुक्का भी काफी है, क्योंकि सभी पहलवान में प्रत्येक में ईंटत्रोटक शक्ति विद्यमान है। उसी तरह भंडसंक्रांति, अनाहारता वगैरह जिस कारणसमूह से सचित्त नमक अचित्त होता है उसमें से भंडसंक्रांति जैसी मात्रक को हिलाने की क्रिया से जिस प्रस्रवणादि में संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति नहीं हुई वैसे तरल प्रवाही में उसकी योनि की उत्पत्ति का निरोध हो जाता है या योनि बिखर जाती है - इस परंपरा को अनुचित या अत्यंत काल्पनिक नहीं कह सकते, क्योंकि हिलाने की क्रिया तत्प्रकारक (=योनिविध्वंसक वगैरह स्वरूप) परिबल के रूप में प्रदर्शित है। इस तरह, निशीथभाष्य के प्रस्तुत श्लोक द्वारा कोई नई बात सिद्ध नहीं करनी, अपितु जो आचरणा सुविहित गीतार्थ श्रमण परंपरा में चली आ रही है वह शास्त्रविरुद्ध नहीं, निरर्थक या अत्यंत निराधार नहीं है - इतना ही यहाँ बताना है। यह बात कोई भी प्राज्ञ व्यक्ति हृदय से ८४
SR No.022666
Book TitleSamurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijaysuri, Jaysundarsuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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