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________________ संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य शास्त्रकारों को यदि इष्ट होता तो शेषकाल में भी तीन-तीन मात्रक रख कर एक ही बार में परठने का विधान करते। स्वाध्यायादि का पलिमंथ = व्याघात कितना कम होगा? परंतु शेषकाल में तीन-तीन मात्रक रखने की बात शास्त्रमान्य नहीं है एवं शास्त्रकारों को यह बात बिलकुल मान्य नहीं कि ‘संमूर्छिम मनुष्य अविराध्य हैं।' . श्लेष्ममल्लक से संमूर्छिम मनुष्य की विराधना संभवित होने की सिद्धि श्लेष्म के मल्लक (=प्याले) की बात निकली ही है तब श्लेष्म का मल्लक भी कितनी बखूबी से संमूर्छिम मनुष्य की विराधना से बचने की बात करता है उसे भी देख लें। श्लेष्म के मात्रक में भस्म = राख भर कर रखी जाती है। पूर्वकाल में भी यही परंपरा थी। इसीलिए तो भस्म को ग्रहण करने का विधान है। श्लेष्म के मात्रक में राख का उपयोग होता था उस बात का दिशानिर्देश हमें आवश्यकनियुक्ति की चूर्णि में से (जिसे पू.हरिभद्रसू.म. ने अपनी वृत्ति में अनेक स्थलों में उद्धत की है उसमें से) मिलता है । आवश्यकभाष्य गा. १३९,१४० की वृत्ति में पू. हरिभद्रसूरिजी ने चूर्णिकार के शब्द यूं पेश किए हैं : “ततो निग्गहिओ छलूगो । गुरुणा य से खेलमल्लो मत्थए भग्गो, ततो निद्धाडिओ, गुरू वि पूतिओ, णगरे य गोसणयं कयं - वद्धमाणसामी जयइ त्ति ।.... तेणावि सरक्खखरडिएणं चेव वइसेसियं पणीयं।" अनुवाद :- इस तरह रोहगुप्त का निग्रह किया। गुरु ने उसके मस्तक पर श्लेष्म की कुंडी फेंकी (अर्थात् उसे तोड़ कर राख डाली) और उसे संघ बाहर किया। गुरु की पूजा हुई और पूरे नगर में घोषणा हुई कि 'वर्धमान स्वामी की जय हो' ... भस्म से खरंटित ऐसे उस रोहगुप्त
SR No.022666
Book TitleSamurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijaysuri, Jaysundarsuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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