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________________ संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य विराधना का ही प्रश्न शेष रहता है । वह विराधना भी मात्रक को व्यवस्थित हिलाने से, संमूर्छिम मनुष्य की योनि न बने वैसी सभी संप्रदाय में प्रचलित विविध यतनाओं के द्वारा निवार्य है। (इस विषयक अधिक जानकारी आगे के विचारबीज (पृ. ८२/८४) में दी जाएगी।) __ प्रज्ञापना के पूर्वप्रदर्शित सूत्र में (देखिए पृष्ठ-६+७) संमूर्च्छिम मनुष्य के उत्पत्ति के स्थान के रूप में नगरनिर्धमनी = नगर की गटर दर्शाई है। उसके द्वारा पन्नवणा सूत्रकार ऐसा सूचित करते हैं कि नगर की गटर पानीसहित होती है, जिससे उसमें अशुचि का वहन होता रहे । अतः उसमें रहे विष्ठादि शुष्क न होने से उसमें संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति निरंतर चालु ही रहती है। (यदि संमूर्छिम मनुष्य की विराधना हमारी कायिक प्रवृत्ति द्वारा शक्य ही न हो तो पंचम समिति के पालन को सरल बनाने के लिए नगर की गटर वगैरह में या शौचालय में या फिर सूखे कचरे के ढेर रूप अन्य सुलभ अशुचिस्थानों में ही उच्चारादि का विसर्जन कर देने का सरल उपाय शास्त्रकारों ने बताया होता। परंतु वैसा तो उपाय नहीं बताया, मुख्यतया संमूर्छिम मनुष्य की विराधना न हो तदर्थ ही न!) बारिश गिरती हो तब ऐसी ही कुछ घटना बनती है। बारिश में मल-मूत्रादि का विसर्जन करने पर वे सूखते नहीं। निरंतर पानी के संपर्क से वे भीगे ही रहते हैं। परिणामतः संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति होती ही रहती है। उसकी विराधना से बच नहीं सकते । तदुपरांत मल-मूत्रादि निमित्तक एवं उनको परठने हेतु किए आवागमन निमितक जो अप्काय आदि की विराधना होती है वह तो अलग! इससे अच्छा तो मात्रक को यतनापूर्वक स्थापित रखने में नहींवत् अथवा तो अल्प विराधना है । अतः मात्रक को रखने का विधान है । एवं इसी कारण से तीन-तीन मात्रक लेने की बात की है। अन्यथा, बिना किसी कारण के भी, संमूर्छिम की विराधना न होने से मात्रक में मल-मूत्रादि रखने का ७५
SR No.022666
Book TitleSamurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijaysuri, Jaysundarsuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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