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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य ने वैशेषिक दर्शन की रचना की।
रोहगुप्त निह्नव की वक्तव्यता में हमें यह स्पष्ट निर्देश मिलता है कि श्लेष्म के मात्रक में भस्म भरी रखी जाती थी।
बृहत्कल्पसूत्रभाष्य (गा. १८८६) की वृत्ति में तो श्लेष्म के मल्लक = प्याले में राख भरने की बात का अत्यंत स्पष्ट उल्लेख मिलता है, इन शब्दो में - "खेलमल्लकस्य भस्मना भरणं।"
यहाँ प्रश्न होता है कि श्लेष्म के प्याले में भस्म क्यों भरी जाती थी ? यह परंपरा - मर्यादा ऐसा सूचित करती है कि - 'श्लेष्म तो गर्भज मनुष्यसंबंधी अशुचि है, शरीर के बाहर आने के पश्चात् यदि अंतर्मुहूर्त में वह सूख न जाए, श्लेष्म के रूप में ही रहे तो फिर उसमें संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति और विराधना होती है। (देखिए पृ.-१२) अतः व्यवस्थित यतनापूर्वक उसका निकाल करना आवश्यक है। यदि श्लेष्ममल्लक में भस्म भर रखें तो उसमें डाला हुआ श्लेष्म, काष्ठपट्टी वगैरह से राख के साथ व्यवस्थित एकमेक कर देने से, राख की गरमी से वह सूख जाता है अथवा श्लेष्म के रूप में नहीं रहता। अतः संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति के प्रायोग्य वह नहीं रहता। ४८ मिनट से अधिक समय तक श्लेष्म, आर्द्रश्लेष्म के रूप में न रहे वह ज़रूरी है, क्योंकि वैसा हो तभी संमूर्छिम मनुष्य की विराधना नहीं होती।'
यदि ‘संमूर्छिम मनुष्य की विराधना हमारे द्वारा शक्य नहीं' - वैसा मान लें तो फिर श्लेष्म सूख जाए या उसका रूपांतरण हो जाए वैसी व्यवस्था करने की क्या आवश्यकता ? श्लेष्म के मात्रक में राख भरने
की क्या ज़रूरत? संपातिम जीवों की विराधना से बचने हेतु मात्रक को ढंक कर रखना ही पर्याप्त है, उसमें भस्म भरने की क्या आवश्यकता?
तदुपरांत, यह भी विचारणीय है कि वर्षाऋतु में श्लेष्म के तीन
Lola