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संमूर्च्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य
संशोधकीय वक्तव्य
विवेक में सत्य का अभिषेक
दिनांक : भाद्रपद कृष्ण १३ जैनशासन विषयक, यदि सदसत् का अनेकांतगर्भित विवेक न हो तो मिथ्यादृष्टि का ज्ञान अज्ञान होने की बात विशेषावश्यकभाष्य वगैरह में निर्दिष्ट है। जैन शास्त्रों में कोई विषय उपलब्ध न हो अतः उसे न मानना, उपलब्ध हो तभी मान्य करना ऐसी नीति विवेकी विद्वान धारण नहीं करते । श्री चैत्यवंदन महाभाष्य (गा. ७८७) में कहा है कि - 'पूर्व के महापुरुषों के मार्ग पर चलने से, सत्यमार्ग से भ्रष्ट न होने द्वारा हमारी सुरक्षा होती है। भावशुद्धि का लाभ होता है । मिथ्या कुविकल्पों से मुक्ति मिलती है ।'
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तदुपरांत शास्त्रों की प्रसिद्ध सूक्ति है कि रज्जु (या टायर) के टुकड़े में अंधेरे में सर्प की बुद्धि से उसे डंडे मारने वाले को पापबंध होता है । किन्तु शुद्ध ईर्यासमिति का, नीचे देख कर अणिशुद्ध पालन करते समय साधु के पैर के नीचे कोई कुलिंगी (बेइन्द्रिय वगैरह ) तथाभवितव्यता से कुचल कर मर जाए तथापि उसे सूक्ष्म भी कर्मबंध नहीं होता । अंततो गत्वा यतना के परिणाम मुख्य हैं।
जैन शास्त्रों में अनेकत्र दशवैकालिकादि सूत्रों में छजीवनिकाय की रक्षा की प्रेरणा - उपदेश का बहुलतया वर्णन किया गया ही है । उसमें कहीं भी संमूर्च्छिम पंचेन्द्रिय की विराधना नहीं होती - वैसा नहीं बताया है । जीव हो या न हो, दिखे या न दिखे, प्रतिलेखन-प्रमार्जन की यतना के पालन से लाभ ही लाभ है ।
तथापि, 'शास्त्र में कहीं भी प्रायश्चित्त नहीं बताया है' - ऐसी निराधार बातें लिख कर 'संमूर्च्छिमविराधना नहीं होती' - ऐसा प्रतिपादन करना कतई उचित नहीं ।
आचार्य श्रीयशोविजयसूरिजी ने अनेक शास्त्रों के आधार पर जो प्रतिवाद किया है उसे गंभीरता से समझ कर सर्व जन भ्रम में से बाहर आए यही शुभकामना ।
जयसुंदरसूरि