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संमूर्च्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य का अवलेखन बताया है । क्या शास्त्रकार के ऐसे विधान मात्र से ऐसा मान लेना उचित है कि 'सचित्त पृथ्वीकाय की विराधना अपनी कायिक प्रवृत्ति से नहीं होती?' तो फिर संमूर्च्छिम मनुष्य से युक्त ऐसे विष्ठादि का कदाचित् अवलेखन ( = साफ) करने की बात शास्त्रकारों ने बताई हो तो भी उसका तात्पर्यार्थ ऐसा कदापि नहीं निकाल सकते कि 'संमूर्च्छिम मनुष्य की विराधना हमारी कायिक प्रवृत्ति से अशक्य ही है । '
आचारांग सूत्र का पाठ बाधक नहीं, प्रत्युत साधक
(६) दूसरी बात यह भी है कि साधु का पैर जब मनुष्य की विष्ठादि अशुचि से ही लिप्त हो तब भी उस अशुचि को पैर में ही रहने देने से उसकी विराधना रुकेगी या उसे संभाल कर यतनापूर्वक एकांत स्थान में उसका अवलेखन कर देने से ? एक बात ध्यान रखने योग्य है कि आचारांग सूत्र के प्रस्तुत संदर्भ के अनुसार भिक्षु गोचरीचर्या के लिए निकला है। उस समय पैर लिप्त हो तो जब तक अशुचि सूख न जाए तब तक एक पैर खड़े काउसग्ग में, हलन चलन किए बिना रहने की बात कैसे उचित कही जाएगी ? प्रवर्तमान भिक्षाटनक्रिया में वैसा कैसे शक्य होगा ? तदुपरांत, अशुचि को पैर में ही रहने दें तो भी साधु के शरीर की गरमी से उन संमूर्च्छिम मनुष्यों को तो परितापनादि अवश्य होंगे ही। शरीर की गरमी वगैरह से विष्ठादि के सूख जाने पर तो संमूर्च्छिम मनुष्य की मृत्यु भी अवश्य होगी। यदि साधु अशुचि से लिप्त ऐसे पैर को यूँ ही रख कर आगे बढ़ेगा तो उन जीवों की तो अधिक विराधना होगी । अतः संमूर्च्छिम मनुष्य की विराधना से बचने का यही श्रेयस्कर मार्ग है कि संभाल कर किसी एकांत जगह में जा कर उस अशुचि का अवलेखन कर के उसे परठ देना । आचारांगसूत्रकार ने संमूर्च्छिम मनुष्य की अधिक विराधना से बचने हेतु ही ऐसी विधि का प्रतिपादन किया है ।
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