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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य
यहाँ पादलेखनिका का ग्रहण दर्शाया है।
निशीथसूत्र में भी (उद्देशक-१, सू.४०) इस प्रकार से पादलेखनिका का उल्लेख मिलता है : “जे भिक्खु दंडयं वा लट्ठियं वा अवलेहणियं वा वेणुसूइयं वा अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा परिघट्टावेति वा संठावेति वा जमावेति वा अलमप्पणो करणयाए सुहममवि नो कप्पड़ जाणमाणे सरमाणे अण्णमण्णस्स वियरति, वियरंतं वा सातिजति ।
इस सूत्र में उल्लिखित अवलेखनिका को परिभाषित करते हुए निशीथभाष्यकार बताते हैं कि :
"उडुबद्धे रयहरणं, वासावासासु पादलेहणिया । वड-उंबरे पिलक्खू, तेसि अलंभम्मि अंबिलिया ।।७०९ ।। बारसंगुलदीहा, अंगुलमेगं तु होति विच्छिण्णा । घण-मसिण-णिव्वणा वि य, पुरिसे पुरिसे य पत्तेयं ।।७१०॥"
इन्हीं गाथाओं के अनुसंधान में ओघनियुक्ति में आगे बताया गया है कि :
“उभओ नहसंठाणा सचित्ताचित्तकारणा मसिणा ।।२९ पूर्वार्ध ।”
श्रीद्रोणाचार्यजी महाराज इस गाथाशकल की वृत्ति में बताते हैं कि:
___“उभयोः पार्श्वयोः नखसंस्थाना = नखवत्तीक्ष्णा । किमर्थमसौ उभयपार्श्वयोस्तीक्ष्णा क्रियते ? सचित्ताचित्तकारणात्, तस्या एकेन पार्श्वन सचित्तपृथिवीकायः संल्लिख्यते, अन्येन पावेनाऽचित्तपृथ्वीकाय इति । किंविशिष्टा सा ? 'मसिण' त्ति मसृणा क्रियते, नातितीक्ष्णा, यतो लिखत आत्मविराधना न भवति । पृथ्वीकाययतनाद्वारं गतम् ।”
यहाँ दोनों ओर से पादलेखनिका को तीक्ष्ण करने की बात की है, जिससे एक ओर से सचित्त पृथ्वीकाय का अवलेखन कर सकें तथा अन्य ओर से अचित्त पृथ्वीकाय का । यहाँ स्पष्टतया सचित्त पृथ्वीकाय