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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य मानो कि मनुष्य की विष्ठा स्वरूप ही अशुचि लगी हो तो भी वह स्वल्प ही होगी। शरीर की गरमी से तो वह सूख जाने वाली है। जब तक भिक्षु प्रस्तुत सूत्रोक्त विधि अनुसार उस अशुचि को दूर करने का उपक्रम करेगा तब तक ऐसी पूरी
शक्यता है कि वे संमूर्छिम मनुष्य च्युत हो चुके हो। (३) पानी से समूचा भीगा होना और अशुचि से पैर लिप्त होना -
इन दोनों के बीच तो खुला तफावत है। पानी को पोंछने से प्रायः तमाम अप्काय जीवों की विराधना होती है। जब कि पैर में लगी हुई अशुचि संमूर्छिम मनुष्य से युक्त हो तो भी उसके अवलेखन से अल्पविराधना ही होती है। अन्य बहुभाग जीवों
को जीवनदान मिल जाता है। (४) अशुचि से पैर को लिप्त रहने देने का विधान शिष्टाचार से भी
विरुद्ध है । अतः आचारांगसूत्रकार ने उस अशुचि वगैरह को दूर करने का विधान, विधि बताने पूर्वक किया हो वैसा संभवित है। पादलेखनिका द्वारा 'गलत मान्यता' का अवलेखन
(५) सचित्त मिट्टी वगैरह से खरंटित पैर को भी साफ करने का
विधान आगम में है ही। तदर्थ लिए गए उपकरण का नाम है : पादलेखनिका अर्थात् अवलेखनिका। अर्थात् वटवृक्ष वगैरह वृक्ष के काष्ठ की पट्टी जैसा, पैर के तलिये जितना चौड़ा, उपकरणविशेष ।
वर्षावास में ग्रहण करने योग्य उपधि को बताते हुए निशीथसूत्रभाष्य (गा.३२३८) में बताया है कि -
"डयलग-ससरक्ख-कुडमुह-मत्तगतिग-लेव-पायलेहणिया।"
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