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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य एवमुक्ता यदि ता द्वितीया नागच्छन्ति तदा किं कर्तव्यम् ? इत्याह – मत्तासईए अपवत्तणे वा,
सागरिए वा निसि णिक्खमंती। तासिं णिवेदेतु ससद्द-दंडा,
अतीति वा णीति व साधुधम्मा ।।३२३४।। रात्रौ मात्रके कायिकी व्युत्सर्जनीया, तत उद्गते सूर्ये सा मात्रककायिकी बहिश्छर्दनीया । अथ मात्रकं नास्ति, यद्वा तस्या मात्रके कायिक्याः प्रवर्त्तनम् = आगमनं न भवति, सागारिकबहुलं वा तद् गृहम्, एतैः कारणैः निशि = रात्रौ एकाकिनी निष्क्रामन्ती तासां = शय्यातरीणां निवेद्य सशब्दा = कासितादिशब्दं कुर्वती दण्डकं हस्ते कृत्वा साधुधर्मा = शोभनसमाचारा अत्येति वा = प्रविशति वा निरेति वा = निर्गच्छति वा ॥३२३४॥
यहाँ एकाकिनी संयती के लिए बहुत स्पष्ट विधि दर्शाई गई है। कारणवश एकाकिनी साध्वी गृहस्थ स्त्री के साथ रही हो तब सहवर्ती स्त्रिओं को कहती है कि - ‘रात को आप उठो तब मुझे भी उठाना, मैं
आपके साथ कायिकी के लिए आऊँगी।' तथापि उठाने की बात का वे स्वीकार न करे तो - ‘रात को मुझे भय लगता है। तो कृपया अवश्य मेरे साथ लघुशंकानिवारण के लिए आना' - इस तरह भारपूर्वक पुनः विज्ञप्ति करनी। इसके बावजूद भी वे साथ में आने को तैयार न हो तो अंततः निरुपाय हो कर मात्रक में मूत्रादि विसर्जित कर के पूरी रात रख कर सुबह परिष्ठापन करें।
मात्रक में मूत्रादि के स्थापन की बात आपद्धर्म स्वरूप में, निरुपाय स्थिति में ही शास्त्रकारों ने बताई है, क्योंकि मात्रक में मूत्रादि के स्थापन से संमूर्छिम मनुष्य की विराधना का उन्हें अच्छी तरह से ख्याल था। यदि संमूर्छिम मनुष्य की विराधना ही असंभव हो तो फिर