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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य दो-दो बार गृहस्थ स्त्री को विनंती कर के बाहर ही जाने का आग्रह शास्त्रकारों ने क्यों रखा? मात्रक का विकल्प तो था ही। चूपके से काम पूरा हो जाता। हाँ, मात्रक में प्रस्रवण करने में अनेक दोषों की संभावना शास्त्रकारों ने दर्शाई ही है। परंतु मात्रक में प्रस्रवण करने में उन संभवित दोषों की अपेक्षा प्रस्तुत में गृहस्थ स्त्रिओं को अप्रीति वगैरह स्वरूप प्रबल और स्पष्ट दोष है... अतः स्पष्ट ज्ञात होता है कि शास्त्रकार संमूर्छिम मनुष्य की विराधना के प्रति सभान हैं। अत एव जब ब्रह्मापायशंकादि रूप बड़े अपाय की संभावना हो तभी मात्रक में प्रस्रवण आदि को रखने की बात उन्होंने बताई है।
एक ऐसी दलील की जाती है कि “मात्रक में रात को लघुशंका निवारण किया हो तो उसे रात को ही परठने की बात शास्त्रों में कहीं नहीं की गई, प्रत्युत उसे पूरी रात न रख कर रात को ही परठने में प्रायश्चित्त बताया है। अतः पूरी रात प्रस्रवण रखने में शास्त्रकारों को संमूर्छिम मनुष्यों की विराधना का होना मान्य नहीं।"
परंतु यह दलील तथ्यविहीन है, क्योंकि प्राचीन काल में रात्रि के समय में मात्रक का उपयोग बहुलतया तभी किया जाता था कि जब रात्रि के समय चौरादि के उपद्रव से बाहर जाना शक्य न हो। ऐसे समय में मात्रक में मूत्रादि कर के उसे रखने के अलावा ओर क्या विकल्प हो सकता है ? बाहर यदि परठने में कोई तकलीफ न हो तो वे बाहर ही शंकानिवारण करने जाते न ! तथाविध कारण के अभाव में मात्रक का उपयोग पूर्व काल में प्रचलित न था। अतः मात्रक में मूत्रादि करने के बाद रात को परठने की बात शास्त्रकार न करे उसमें कोई आश्चर्य नहीं। तथा रात को मात्रक परठने हेतु बाहर जाने में जो प्रायश्चित्त बताया है, वह तो बाहर रात्रि के समय प्रत्यपायों की संभावना होने से बताया है। रात्रि के समय संभवित प्रत्यपाय, २-३ साधु के एकसाथ जाने में, यदि