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संमूर्च्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य
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उच्चार के लिए। तदुक्तं बृहत्कल्पभाष्य- ३२०८गाथावृत्तौ द्विविधा - कायिकीभूमिः उच्चारभूमिश्च) अथवा विहारभूमि (= स्वाध्याय भूमि ) जाना कल्पता नहीं है । श्रमणों को दो-तीन की संख्या में, श्रमणिओं को दो-तीन - चार की संख्या में जाना कल्पता है ।
इस तरह यहाँ यह बाबत स्पष्ट हो जाती है कि शीलसुरक्षाभय, चौरभय या अन्य उपद्रव की संभावना वगैरह स्वरूप विशेष संयोग के अलावा, रात्रि के समय में भी मल-मूत्रादि का बाहर परिष्ठापन कर देना शास्त्रकारों को इष्ट है, क्योंकि तभी संमूर्च्छिम मनुष्य की विराधना से बच सकते हैं । परंतु विशेष आगाढ संयोग के अलावा संपूर्ण रात्रि घटीमात्रक आदि में मूत्रादि का रखना तो शास्त्रकारों को क़तई इष्ट नहीं, कि जिसके द्वारा यूँ सिद्ध हो सके कि 'संमूर्च्छिम मनुष्य की विराधना अशक्य है ।'
संमूर्च्छिम मनुष्य की विराधना से बचने की अनेकविध यतनाएँ
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प्रस्तुत बृहत्कल्पसूत्र के भाष्य का ओर एक पाठ एवं सुप्रसन्न शैली के स्वामी श्रीक्षेमकीर्तिसूरि की वृत्ति भी देख लें - तेणिच्छिए तस्स जहिं अगम्मा,
वसंति णारितो तहिं वसेज्जा ।
ता बेति रत्तिं सह तुब्भ णीहं,
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अणिच्छमाणीसु बिभेमि बेति ।। ३२३३।।
एवमुक्ते सति यद्यसौ श्रावक इच्छति = तदुक्तं प्रतिपद्यते तदा तस्य = शय्यातरस्य यत्र अगम्याः माता-भगिनीप्रभृतयो नार्यो वसन्ति तत्र सा एकाकिनी संयती वसेत् । ताश्च स्त्रियो ब्रूते - रात्रौ युष्माभिः सहाहं कायिक्याद्यर्थं निर्गमिष्यामि, अतो यदा भवत्य उत्तिष्ठन्ते तदा मामप्युत्थापयत । यदि ता इच्छन्ति ततो लष्टम्, अथ नेच्छन्ति ततः 'अहं रात्रावेकाकिनी निर्गच्छन्ती बिभेमि' इत्येवं ब्रवीति ।। ३२३३ ॥