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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य उनकी विराधना से बचने का हरदम प्रयास करते हैं। “णवणीयतुल्लहियया साहू" - इस प्रकार साधु के हृदय को मक्खन की उपमा व्यवहारसूत्र भाष्य (७/२१५) में यूँ ही थोड़ी दी गई है? * निशीथसूत्र के अर्थघटन की दो परंपरा
B-1 क्रमांक विचारबिंदु में रामलालजी महाराज निशीथसूत्र के एक सूत्र को पेश कर के वैसा फलित करने का प्रयास करते हैं कि पूरी रात मल-मूत्र रखने का विधान होने से संमूर्छिम मनुष्य की विराधना नहीं होती। यही बात उन्होंने भिन्न-भिन्न प्रकार से अपने विचारबिंदु में सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। साथ में परिशिष्ट में इस सूत्र के पाठ को ले कर भी हस्तप्रत आदि के आधार से मीमांसा पेश की है। इस विषयक वास्तविकता समझने के लिए हमें विस्तारपूर्वक मूल से ही पूरी बात समझनी पड़ेगी।
सबसे पहले तो सूत्र को देख लें : (निशीथसूत्र - तृतीय उद्देशक, अंतिम सूत्र)
“जे भिक्खू राओ वा वियाले वा उच्चार-पासवणेणं उब्बाहिजमाणे पादं गहाय, परपायं वा जाइत्ता उच्चार-पासवणं करेति, जो तं अणुग्गते सूरिए एडति, एडतं वा साइज्जति, तं सेवमाणे आवजति मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाइमं ।”
इस सूत्र के अर्थघटन के विषय में दो भिन्न-भिन्न मान्यताएँ प्राचीन परंपरा से चली आ रही है।
निशीथसूत्र के भाष्य-चूर्णि में अनुद्गतसूर्य का अर्थ क्षेत्रपरक होने का संकेत नहीं मिलता। दूसरी परंपरा में अनुद्गतसूर्य का अर्थ क्षेत्रपरक (= जिस क्षेत्र में सूर्य के किरण पहुँचते न हो वैसा क्षेत्र) बताया है।