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________________ संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य इन दोनों मान्यता के अनुसार संमूर्छिम मनुष्य की विराधना अशक्य होने की बात किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं हो सकती। इस बात को मूल से देखें। निशीथसूत्र का तात्पर्यार्थ यह है कि संध्या समय में, कि जब अंधेरा फैल रहा हो, तथा रात्रि के समय में लघुशंका या दीर्घशंका से पीडित हुआ श्रमण अपने या अन्य के मात्रक में मल-मूत्र कर सकता है और बाहर (उपद्रवों की संभावना में) सूर्योदय न हो तब तक मलमूत्र परठने वाला प्रायश्चित्त का भागी होता है। . अन्यान्य संदर्भो के परिप्रेक्ष्य में निशीथसूत्र का दोहन इस सूत्र का तात्पर्यार्थ ऐसा नहीं है कि श्रमणों को रात्रि के समय मल-मूत्र परठने का निषेध है । यह सूत्र कारणिक है, आपवादिक है। रात्रि के समय श्रमण मल-मूत्रादि परठने न जाए, मात्रक में ही रख दे - वैसा शास्त्रकारों को अभिप्रेत नहीं है। इस बात के मुख्य साक्षी संध्याकाल में उच्चार-प्रश्रवण परठने की भूमि का प्रतिलेखन न करने में प्रायश्चित्त का विधान करने वाले निशीथसूत्र के चौथे उद्देशक (सूत्र१०२+१०३) के दो सूत्र हैं। सूत्रद्विक इस प्रकार है : “जे भिक्खू साणुप्पए उच्चार-पासवणभूमिं ण पडिलेहेति, ण पडिलेहंतं वा सातिजति, जे भिक्खू तओ उच्चार-पासवणभूमीओ ण पडिलेहेइ, ण पडिलेहतं वा सातिज्जति ।" सानुप्रग् = दिन की चरमपौरुषी का चौथा भाग शेष हो तब (चउभागावसेसचरिमाए) अर्थात् संध्या के प्रारंभ में जब प्रकाश पर्याप्त प्रमाण में हो तब तीन-तीन उच्चार-प्रस्रवण की वसति न देखने वाले भिक्षु को प्रायश्चित्त फरमाया गया है। ये वसतियाँ निवेशनक के अंदर ४७
SR No.022666
Book TitleSamurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijaysuri, Jaysundarsuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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