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________________ संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य (देखिए पृष्ठ – ५८) एवं इस बाबत को तो सुविहित प्राचीन पंरपरा का भी प्रबल सहारा है। अब हम रामलालजी को कहना चाहते हैं कि 'सूक्ष्म जीव अपनी कायिक प्रवृत्ति से विराध्य नहीं' - इस प्रकार का जैसे शास्त्र में स्पष्ट उल्लेख मिलता है उस तरह, 'संमूर्छिम मनुष्य अपनी कायिक प्रवृत्ति से विराध्य नहीं' - वैसा स्पष्ट पाठ चारों संप्रदाय के किसी भी प्राचीन ग्रंथों में से पेश करें...। अहिंसा के प्रमुख सिद्धांत से गुम्फित और अहिंसा की सूक्ष्मतम सावधानी दर्शाने वाले अपने शासन में जो जीव अपनी कायिक प्रवृत्ति से अहिंस्य हो उसका उल्लेख अवश्य होगा ही... अन्यथा उसे अवश्य हिंस्य मानना चाहिए। अतः रामलालजी महाराज को नम्र विज्ञप्ति है - संमूर्च्छिम मनुष्य अपनी कायिक प्रवृत्ति से अविराध्य होने का स्पष्ट पाठ पेश करें... बाद में ही किसी भी प्रकार की प्ररूपणा करें। जब तक संमूर्छिम मनुष्य अहिंस्य होने का स्पष्ट पाठ न मिले तब तक संमूर्छिम मनुष्य को संलग्न नइ मान्यता का प्रचार संपूर्णतः स्थगित कर दें - इसीमें उनकी भलाई है । तथा रामलालजी महाराज के पास अपेक्षा भी यही है, क्योंकि वे तो अत्यंत नवीन, जिसका किसी भी परंपरा में उल्लेख नहीं वैसी, बात कर रहे हैं। वह बात निराधार कैसे मान्य बन सकती है? परंपरा से चली आ रही बात के भी स्पष्ट साक्षी पाठ वे यदि माँग रहे हो तो अपनी नूतन प्ररूपणा के दर्शक ऐसे भी स्पष्ट और प्रामाणिक सबूत-पाठ उन्हें भी पेश करने ही चाहिए। उसके बिना वे जितने भी तर्क पेश करें वे सभी बेबुनियादी महल ही साबित होने वाले हैं। सचमुच तो जीवदया से भावित ऐसे साधु का अंत:करण संमूर्च्छिम मनुष्य की विराधना से बचने के लिए सदैव समुत्सुक और जागरूक ही होता है। संमूर्छिम मनुष्य से संसक्त ऐसी अशुचि से वे दूर ही रहते हैं।
SR No.022666
Book TitleSamurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijaysuri, Jaysundarsuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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