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________________ संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य सकती। आचारांगसूत्र (श्रु.१/अ.१/उ. ६/सू. ४९) में परमात्मा ने स्पष्ट फरमाया है कि : “से बेमि - संतिमे तसा पाणा - अंडया पोतया जराउया रसया संसेयया सम्मुच्छिमा उब्भिया उववातिया । एस संसारे त्ति पवुच्चति मंदस्स अवियाणओ।...... तं परिण्णाय मेधावी व सयं तसकायसत्थं समारभेज्जा, णेवऽण्णेहिं तसकायसत्थं समारभावेजा, णेवण्णे तसकायसत्थं समारभंते समणुजाणेज्जा।" अंडज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज, संमूर्छिम वगैरह रूप त्रस जीव होते हैं। इन सबको जान कर पंडित-मेधावी उनकी हिंसा से त्रिविध-त्रिविध निवृत्त हो - ऐसा बता कर स्पष्टतया संमूर्छिम की हिंसा का निषेध किया है। तब हम किस आधार पर संमूर्छिम मनुष्य को अहिंसनीय जाहिर कर सकते हैं? जिसकी हिंसा शक्य हो उसकी हिंसा का निषेध मोक्षमार्ग में उपयोगी बनता है। जिसकी हिंसा हमारे द्वारा शक्य ही न हो उसकी हिंसा से निवृत्त होने का उपदेश अनावश्यक बन जाता है। आकाश की हिंसा से प्रत्यावृत्त होने की बात शास्त्रकार कभी नहीं करते । उपर्युक्त आचारांगसूत्र में तो संमूर्छिम की हिंसा का स्पष्ट निषेध किया ही है। श्रीरामलालजी महाराज ने अनेकत्र जोर-शोर से उद्घोषणा की है कि : “संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति शरीर के बाहर ही, मुहूर्त के बाद ही होती है - ऐसा स्पष्ट उल्लेख आगम में तो नहीं है, प्रत्युत आगमों के प्राचीन व्याख्यासाहित्य में और इतर शास्त्रग्रंथों में कहीं भी नहीं मिलता।" प्रस्तुत लेख में निशीथसूत्र की प्राचीन व्याख्या का तथा तआधारित प्राचीन शास्त्रग्रंथ का वैसा स्पष्ट पाठ हम देने वाले ही हैं। ४४
SR No.022666
Book TitleSamurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijaysuri, Jaysundarsuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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