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________________ संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य उत्तेजक माना गया है। इस तरह, प्रतिबंधक की मौजूदगी में कार्य का होना - वह उत्तेजक को आभारी होता है। प्रस्तुत में मनुष्यआत्मा, देहवर्ती रक्तादि में संमूर्छिम की उत्पत्ति के प्रति प्रतिबंधक है। यह बात 'विगतजीवकलेवरेसु' ऐसा कहने द्वारा पहले (पृ.१६) स्पष्ट कर दी है। सजीव शरीर में उत्पत्ति यदि मान्य हो तो 'विगतजीव ऐसा विशेषण बताना निष्प्रयोजन-निरर्थक ही बन जाएगा। अब यदि कहीं प्रतिबंधक की मौजूदगी में भी कार्य होने लगे नो वहाँ उत्तेजक की मौजूदगी माननी आवश्यक बन जाती है। स्त्रीपुंसंयोग में उत्पन्न होने वाले संमूर्छिम मनुष्य के प्रति मनुष्यजन्मस्थानरूप उत्तेजक कार्यरत है। सामान्यतया मनुष्यआत्मा की हाज़री में संमूर्छिम मनुष्य उत्पन्न नहीं होते, परंतु स्त्रीयोनिस्वरूप जो स्थान मनुष्य की उत्पत्ति के लिए, मनुष्यआत्मा के सान्निधान में, निर्मित हुआ है, वहाँ संमूर्छिम मनुष्य की भी उत्पत्ति का होना अनुचित नहीं है। आगमकथन के आधार पर उस बात के स्वीकार में कोई बाध जैसा नहीं है। प्रतिबंधक-उत्तेजक की कल्पना से संपूर्ण बात अत्यंत स्पष्ट हो जाती है। स्त्री-पुरुषसंयोग = शुक्र-शोणितसंयोग वह विलक्षण अवस्था है, मनुष्योत्पत्ति के लिए विशेष अनुकूल है - ऐसा रामलालजी महाराज को भी मान्य करना ही पड़ेगा। अन्यथा, उनके मतानुसार शुक्रशोणितसंयोग = स्त्री-पुरुषसंयोग ऐसा पद व्यर्थ ही साबित होगा, क्योंकि उनके मतानुसार शरीर के भीतर रहे शुक्र और शोणित में भी संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति मान्य होने से ही, जब पन्नवणा सूत्रकार ने शुक्र और शोणित का ग्रहण कर ही लिया है तब शुक्र-शोणितसंयोग को अतिरिक्त दर्शाना अत्यंत अप्रस्तुत ही बना रहेगा... अन्यथा पित्तकफसंयोगादि अनेक स्थान दर्शाने की आपत्ति आयेगी। मूल आगमिक परंपरा के अनुसार तो शरीरबहिर्निर्गत अशुचि में ३६
SR No.022666
Book TitleSamurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijaysuri, Jaysundarsuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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